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नम॒सेदुप॑ सीदत द॒ध्नेद॒भि श्री॑णीतन । इन्दु॒मिन्द्रे॑ दधातन ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

namased upa sīdata dadhned abhi śrīṇītana | indum indre dadhātana ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नम॑सा । इत् । उप॑ । सी॒द॒त॒ । द॒ध्ना । इत् । अ॒भि । श्री॒णी॒त॒न॒ । इन्दु॑म् । इन्द्रे॑ । द॒धा॒त॒न॒ ॥ ९.११.६

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:11» मन्त्र:6 | अष्टक:6» अध्याय:7» वर्ग:37» मन्त्र:1 | मण्डल:9» अनुवाक:1» मन्त्र:6


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - हे परमात्मन् ! आप (नमसा इत्) हमारी नम्र वाणियों से (उपसीदत) हमारे हृदय में निवास करो (दध्ना इत्) ‘धीयतेऽनेनेति दधि’ हमारी धारणा से (उपश्रीणीतन) हमारे ध्यान का विषय बनो (इन्दुम् इन्द्रे) हमारे मन को अपने प्रकाशित स्वरूप में (दधातन) लगाओ ॥६॥
भावार्थभाषाः - जो लोग प्रार्थना से अपने हृदय को नम्र बनाते हैं, उनका मन परमात्मा के स्वरूप में अवश्यमेव स्थिर होता है ॥६॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'इन्दु' का इन्द्र में धारण

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (नमसा) = नमन के द्वारा (इत्) = निश्चय से (उपसीदत) = प्रभु की उपासना करो। इस प्रभु की उपासना से ही (इन्दुम्) = सोम को (इन्द्रे) = परमैश्वर्यशाली प्रभु की प्राप्ति के निमित्त [जितेन्द्रिय पुरुष में] (दधातन) = धारण करो। उपासना के होने पर वासनाओं की प्रबलता नहीं होती । वासनाओं की प्रबलता के अभाव में सोम का रक्षण सुगम होता है, रक्षित सोम ज्ञानाग्नि को दीप्त करके प्रभु के प्रकाश का साधन बनता है। [२] (दध्ना) = 'इन्द्रियं वै दधि' [ तै० २।१।५।६ ] इन्द्रियों के हेतु से (इत्) = निश्चय से (अभि श्रीणीतन) = इस सोम का परिपाक करो। सोम को शरीर में ही सुरक्षित रखना इसलिए आवश्यक है कि इसी के द्वारा सब इन्द्रियों की शक्ति ठीक बनी रहती है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोमरक्षण के लिये हम प्रभु का उपासन करें। रक्षित सोम हमारी इन्द्रियों की शक्ति के वर्धन का कारण बनता है और अन्ततः प्रभु के प्रकाश को प्राप्त कराता है ।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - हे परमात्मन् ! भवान् (नमसा इत्) मदीयनम्रवाग्भिः (उपसीदत) हृदये निवसतु (दध्ना इत्) मदीयधारणया च (उपश्रीणीतन) ध्यानविषयो भवतु (इन्दुम् इन्द्रे) मदीयम्मनः स्वप्रकाशितस्वरूपे (दधातन) योजयतु ॥६॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O Soma, eternal peace and joy, come, listen and abide by our homage at the closest, be one with our prayer and meditation, hold our mind and spirit in concentration within the ecstasy of your divine glory.