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शिशुं॑ जज्ञा॒नं हरिं॑ मृजन्ति प॒वित्रे॒ सोमं॑ दे॒वेभ्य॒ इन्दु॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śiśuṁ jajñānaṁ harim mṛjanti pavitre somaṁ devebhya indum ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

शिशु॑म् । ज॒ज्ञा॒नम् । हरि॑म् । मृ॒ज॒न्ति॒ । प॒वित्रे॑ । सोम॑म् । दे॒वेभ्यः॑ । इन्दु॑म् ॥ ९.१०९.१२

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:109» मन्त्र:12 | अष्टक:7» अध्याय:5» वर्ग:21» मन्त्र:2 | मण्डल:9» अनुवाक:7» मन्त्र:12


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (शिशुं) सर्वोपरि प्रशंसनीय (जज्ञानं) सर्वत्र विद्यमान (हरिं) सब दुःखों को हरण करनेवाला (इन्दुं) प्रकाशस्वरूप (सोमं) सौम्यस्वरूप परमात्मा को (पवित्रे) पवित्र अन्तःकरण में (देवेभ्यः) दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिये (मृजन्ति) ऋत्विग् लोग साक्षात्कार करते हैं  ॥१२॥
भावार्थभाषाः - जो ऋतु-ऋतु में यज्ञों द्वारा परमात्मा का यजन करते हैं, उनका नाम “ऋत्विग्” है अर्थात् इस विराट् स्वरूप की महिमा को देखकर जो आध्यात्मिक यज्ञादि द्वारा परमात्मा की उपासना करते हैं, उन्हीं को परमात्मा का साक्षात्कार होता है ॥१२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'शिशु - इन्दु'

पदार्थान्वयभाषाः - (शिशुम्) = बुद्धियों को तीव्र करनेवाले [शो तनूकरणे] (जज्ञानम्) = शक्तियों का प्रादुर्भाव करनेवाले (हरिम्) = सब रोग आदि का हरण करनेवाले इस सोम को (मृजन्ति) = साधक लोग शुद्ध करते हैं, इसे वासनाओं से मलिन नहीं होने देते । (पवित्रे) = पवित्र हृदय में, जिस हृदय क्षेत्र से वासनाओं के झाड़ी- झंकाड़ों को उखाड़ दिया गया है, उस हृदय में (सोमम्) = सोम को पवित्र करते हैं। यह सोम (देवेभ्यः) = देववृत्ति वाले पुरुषों के लिये (इन्दुम्) = शक्ति को देनेवाला होता है। यह सोमरक्षण ही वस्तुतः उन्हें देव बनाता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- वासनाओं से मलिन न होने दिया जाता हुआ सोम बुद्धि को तीव्र करता है, शक्तियों को प्रादुर्भूत करता है, सब रोगकृमियों का अपहरण करता है, हमें देववृत्ति का बनाता है।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (शिशुम्) सर्वोपरि प्रशंसनीयं (जज्ञानं) सर्वत्र विद्यमानं (हरिं) सर्वदुःखहर्तारं (इन्दुम्) प्रकाशस्वरूपं (सोमम्) सौम्यस्वभावं परमात्मानं (पवित्रे) पवित्रान्तःकरणे (देवेभ्यः) दिव्यगुणप्राप्तये (मृजन्ति) ऋत्विग्जनाः साक्षात्कुर्वन्ति ॥१२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - They adore and exalt that Soma spirit of divine beauty, peace and glory in their pure heart core, the spirit that is creative and lovable, manifestive, saviour and inspirer, for the achievement of noble virtues worthy of the noble and generous people.