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स॒हस्र॑धारं वृष॒भं प॑यो॒वृधं॑ प्रि॒यं दे॒वाय॒ जन्म॑ने । ऋ॒तेन॒ य ऋ॒तजा॑तो विवावृ॒धे राजा॑ दे॒व ऋ॒तं बृ॒हत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sahasradhāraṁ vṛṣabham payovṛdham priyaṁ devāya janmane | ṛtena ya ṛtajāto vivāvṛdhe rājā deva ṛtam bṛhat ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒हस्र॑ऽधारम् । वृ॒ष॒भम् । प्चायः॒ऽवृध॑म् । प्रि॒यम् । दे॒वाय॑ । जन्म॑ने । ऋ॒तेन॑ । यः । ऋ॒तऽजा॑तः । वि॒ऽव॒वृ॒धे । राजा॑ । दे॒वः । ऋ॒तम् । बृ॒हत् ॥ ९.१०८.८

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:108» मन्त्र:8 | अष्टक:7» अध्याय:5» वर्ग:18» मन्त्र:3 | मण्डल:9» अनुवाक:7» मन्त्र:8


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सहस्रधारम्) जो अनन्त प्रकार की आनन्दधाराओं से (वृषभम्) कामनाओं का पूर्ण करनेवाला (पयोवृधम्) जो अन्नादि ऐश्वर्य्यों से परिपूर्ण और (प्रियम्) जो सर्वप्रिय है, ऐसे परमात्मा से मैं (देवाय, जन्मने) दिव्यजन्म के लिये प्रार्थना करता हूँ, जो (ऋतेन) प्रकृतिरूपी ऋत से (ऋतजातः) ऋतजात अर्थात् सर्वत्र विद्यमान है, (विवावृधे) जो सर्वत्र विशेषरूप से वृद्धि को प्राप्त है, (यः) जो (देवः) दिव्यस्वरूप और जो (राजा) सब भूतों का स्वामी है, वही (ऋतं बृहत्) एकमात्र सर्वोपरि सत्य है, उसी परमात्मा की हम लोग उपासना करें ॥८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में प्रकृति को “ऋत” इस अभिप्राय से कहा गया है कि प्रकृति परिणामी नित्य है–अर्थात् परिणाम को प्राप्त होकर नाश नहीं होती, शेष सब अर्थ स्पष्ट है ॥८॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

राजा देवः ऋतं बृहत्

पदार्थान्वयभाषाः - गतमन्त्र की ' आसोत-परिषिञ्चत' क्रिया ही यहाँ भी अनुवृत्त होती है। उस सोम को उत्पन्न करो और शरीर में चारों ओर सिक्त करो जो (सहस्त्राधारम्) = हजारों प्रकार से धारण करनेवाला है, (वृषभम्) = शक्ति का सेचन करनेवाला है, (पयोवृधम्) = ज्ञानजल को बढ़ानेवाला है, (प्रियम्) = प्रीति का जनक है और (देवाय जन्मने) = दिव्यगुणों के जन्म के लिये होता है। (यः) = जो सोम (ऋतजातः) = ऋत के निमित्त यज्ञ के निमित्त उत्पन्न हुआ हुआ ऋतेन इन यज्ञों से (विवावृधे) = विशिष्ट वृद्धि को प्राप्त करता है। राजा दीप्त होता है, (देवः) = दिव्यगुण सम्पन्न होता है। यह सोम (बृहत् ऋतम्) = महान् ऋत है। इसी से जीवन में सब यज्ञ व ठीक बातें होती हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सुरक्षित सोम हमारे जीवन में दिव्यगुणों को जन्म देता है। यह हमें दीप्तिमान् बनाता है। महान् ऋत का कारण बनता है।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सहस्रधारम्) योऽनेकधानन्दधाराभिः (वृषभं) कामनानां पूरकः (पयोवृधं) योऽन्नाद्यैश्वर्येण परिपूर्णः (प्रियं) यः सर्वप्रियः तस्य परमात्मनः (देवाय, जन्मने) दिव्यजन्मने प्रार्थनां करोमि (यः) यश्च (ऋतेन) प्रकृतिरूपस्तेन (ऋतजातः) ऋतजातोऽस्ति (विवावृधे) यः सर्वत्र विशेषेण वृद्धिं प्राप्तः यश्च (देवः) दिव्यस्वरूपः (राजा) सर्वभूतस्वामी च (ऋतं, बृहत्) सर्वोपरि सत्यः तमुपासीमहि वयम् ॥८॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - For the rise of the self to the state of divine refulgence, let us serve and adore Soma, divine spirit of a thousand streams and showers, potent and generous, augmenter of the milk of life, dear as father and friend, who, manifestive in the laws of universal existence, pervades the expansive creativity of divine power and is the self-refulgent ruler, generous divinity and the infinite law, truth and ultimate reality itself.