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आ व॑च्यस्व सुदक्ष च॒म्वो॑: सु॒तो वि॒शां वह्नि॒र्न वि॒श्पति॑: । वृ॒ष्टिं दि॒वः प॑वस्व री॒तिम॒पां जिन्वा॒ गवि॑ष्टये॒ धिय॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā vacyasva sudakṣa camvoḥ suto viśāṁ vahnir na viśpatiḥ | vṛṣṭiṁ divaḥ pavasva rītim apāṁ jinvā gaviṣṭaye dhiyaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ । व॒च्य॒स्व॒ । सु॒ऽद॒क्ष॒ । च॒म्वोः॑ । सु॒तः । वि॒शाम् । वह्निः॑ । न । वि॒श्पतिः॑ । वृ॒ष्टि॑म् । दि॒वः । प॒व॒स्व॒ । री॒तिम् । अ॒पाम् । जिन्व॑ । गोऽइ॑ष्टये । धियः॑ ॥ ९.१०८.१०

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:108» मन्त्र:10 | अष्टक:7» अध्याय:5» वर्ग:18» मन्त्र:5 | मण्डल:9» अनुवाक:7» मन्त्र:10


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सुदक्ष) हे सर्वज्ञ परमात्मन् ! आप (चम्वोः) प्रकृति तथा जीवरूप व्याप्य पदार्थों में (सुतः) सर्वत्र विद्यमान (विशाम्) सब प्रजाओं के (वह्निः) अग्नि (न) समान (विश्पतिः) वोढा=नेता हैं, आप (आ, वच्यस्व) हमें प्राप्त हों, (दिवः) द्युलोक की (वृष्टिम्) वृष्टि को (पवस्व) पवित्र करें, (अपां, रीतिम्) कर्मों की गति को पवित्र करें, (गविष्टये) ज्ञान और (धियः) कर्मों की इच्छा करनेवाले पुरुष को (जिन्व) अपनी शक्ति से परिपूर्ण करें ॥१०॥
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार अग्नि एक पदार्थ को स्थानान्तर को प्राप्त कर देती है अर्थात् अपनी तेजोमयी शक्ति से गतिशील बना देती है, इसी प्रकार परमात्मा ज्ञानी तथा शुभकर्मी पुरुष को गतिशील बनाता है, जिससे पुरुष शक्तिसम्पन्न होकर उसकी समीपता को उपलब्ध करता है ॥१०॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

जिन्वा गविष्टये धियः

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सुदक्ष) = उत्तम बल वाले सोम (चम्वोः) = द्यावापृथिवी के निमित्त, मस्तिष्क व शरीर के स्वास्थ्य के लिये (सुतः) = उत्पन्न हुआ हुआ तू (आवच्यस्व) = शरीर में चारों ओर प्राप्त हो । [वंच् To go, arrive at] शरीर के अंग-प्रत्यंग में पहुँचा हुआ तू उन सब को सशक्त बना । तू (विशां वह्निः न) = प्रजाओं के लक्ष्य स्थान पर ले जानेवाले के समान है। (विश्पतिः) = सब प्रजाओं का रक्षक है । (दिवः) = मस्तिष्क रूप द्युलोक से (वृष्टि) = आनन्द की वृष्टि को (पवस्व) = प्राप्त करा । योगमार्ग में धर्ममेघ समाधि में प्राप्त होनेवाली आनन्द की वृष्टि को तू सिद्ध कर। (अपां रीतिम्) = कर्मों के प्रवाह को तू प्राप्त करा । तेरे रक्षण के द्वारा हम सतत क्रियाशील बनें। (गविष्टये) = आत्मान्वेषण के लिये (धियः) = बुद्धियों को (जिन्व:) = प्रीणित कर । तेरे रक्षण से हमें बुद्धि की वह सूक्ष्मता प्राप्त हो, जो आत्मदर्शन का साधन बनती है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सुरक्षित सोम मस्तिष्क व शरीर को उत्तम बनाता है, हमें लक्ष्यस्थान पर पहुँचाता है। आनन्द की वृष्टि का अनुभव कराता है, निरन्तर क्रियाशील बनाकर हमें सूक्ष्म बुद्धिवाला बनाता है जिससे हम प्रभु दर्शन कर सकें ।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सुदक्ष) हे सर्वज्ञ ! (चम्वोः) जीवप्रकृतिरूपव्याप्यपदार्थेषु (सुतः) सर्वत्र विद्यमानः (विशां) प्रजानां (वह्निः, न) अग्निरिव (विश्पतिः) धारकः, भवान् (आ, वच्यस्व) मम मनसि आगच्छ (दिवः) द्युलोकस्य (वृष्टिं) वर्षणं (पवस्व) पुनातु (अपां, रीतिं) कर्मणां गतिं च पुनातु (गविष्टये, धियः) ज्ञानस्य कर्मणां चाभिलाषिणं जनं (जिन्व) शक्त्या परिपूरयतु ॥१०॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O Spirit omnipotent of divine action, invoked, adored and vibrant in the internal world of mind and soul and in the external world of nature, sustainer and ruler as burden bearer of humanity, stimulate the radiation of light from heaven, sanctify the shower of bliss, and inspire and illuminate the mind and intelligence for the seeker of enlightenment.