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मृ॒ज्यमा॑नः सुहस्त्य समु॒द्रे वाच॑मिन्वसि । र॒यिं पि॒शङ्गं॑ बहु॒लं पु॑रु॒स्पृहं॒ पव॑माना॒भ्य॑र्षसि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mṛjyamānaḥ suhastya samudre vācam invasi | rayim piśaṅgam bahulam puruspṛham pavamānābhy arṣasi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मृ॒ज्यमा॑नः । सु॒ऽह॒स्त्य॒ । स॒मु॒द्रे । वाच॑म् । इ॒न्व॒सि॒ । र॒यिम् । पि॒शङ्ग॑म् । ब॒हु॒लम् । पु॒रु॒ऽस्पृह॑म् । पव॑मान । अ॒भि । अ॒र्ष॒सि॒ ॥ ९.१०७.२१

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:107» मन्त्र:21 | अष्टक:7» अध्याय:5» वर्ग:16» मन्त्र:1 | मण्डल:9» अनुवाक:7» मन्त्र:21


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सुहस्त्य) हे सर्वसामर्थ्यों को हस्तगत करनेवाले परमात्मन् ! आप (समुद्रे) अन्तरिक्ष में (वाचम्) वाणी की (इन्वसि) प्रेरणा करते हैं, (मृज्यमानः) उपासना किये हुए आप (बहुलम्) बहुत सा (पिशङ्गम्) सुवर्णरूपी (रयिम्) धन (पुरुस्पृहम्) जो सबको प्रिय है (पवमान) हे सबको पवित्र करनेवाले परमात्मन् ! (अभ्यर्षसि) आप देते हैं ॥२१॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा की उपासना करने से सब प्रकार के ऐश्वर्य मिलते हैं, इसलिये ऐश्वर्य्य की चाहनावाले पुरुष को उसकी उपासना करनी चाहिये ॥२१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

रयि [पिशंग, बहुल, पुरुस्पृह]

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सुहस्त्य) = उत्तम हाथों वाले ! अर्थात् हाथों को सदा उत्तम कर्मों में प्रेरित करनेवाले सोम ! (मृज्यमानः) = शुद्ध किया जाता हुआ वासनाओं के उबाल से मलिन न होने दिया जाता हुआ तू (समुद्रे) = [स-मुद्] आनन्दमय, प्रसादयुक्त हृदयान्तरिक्ष में (वाचम् इन्वसि) = प्रभु की वाणी को प्रेरित करता है । तेरे रक्षण से हृदय में प्रभु की वाणी सुन पड़ती है । हे (पवमान) = पवित्र करनेवाले सोम ! तू (रयिं अभ्यर्षसि) = रयि को, धन को प्राप्त कराता है, जो (पिशंग) = दीप्तियुक्त है, हमें तेजस्वी बनाता है, (बहुलम्) = सब आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये पर्याप्त है और (पुरुस्पृहम्) = बहुतों से स्पृहणीय है। अर्थात् अधिक से अधिक लोगों के हित में विनियुक्त हुआ हुआ सभी से वाचनीय होता है, सभी से प्रशंसित होता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - क्रियाशीलता सोम को पवित्र बनाये रखती है । सोम हमें प्रभु प्रेरणा को सुनने का पात्र बनाता है। और स्पृहणीय धनों को प्राप्त कराता है।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सुहस्त्य) हे सर्वसामर्थ्यानां हस्तगतकारक परमात्मन् ! भवान् (समुद्रे) अन्तरिक्षे (वाचम्) वाणीं (इन्वसि) प्रेरयति (मृज्यमानः) उपास्यमानश्च (बहुलं) प्रचुरं (पिशङ्गं) सौवर्णं (रयिम्) धनं (पुरुस्पृहं) सर्वप्रियं (पवमान) हे पावयितः ! (अभ्यर्षसि) ददाति भवान् ॥२१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O Spirit omnipotent with the world in your generous hands, celebrated and exalted, you stimulate and inspire the song of adoration in the depths of the heart and, pure, purifying, radiating and exalting, set in motion immense wealth of golden graces of universal love and desire for us.