रयि [पिशंग, बहुल, पुरुस्पृह]
पदार्थान्वयभाषाः - हे (सुहस्त्य) = उत्तम हाथों वाले ! अर्थात् हाथों को सदा उत्तम कर्मों में प्रेरित करनेवाले सोम ! (मृज्यमानः) = शुद्ध किया जाता हुआ वासनाओं के उबाल से मलिन न होने दिया जाता हुआ तू (समुद्रे) = [स-मुद्] आनन्दमय, प्रसादयुक्त हृदयान्तरिक्ष में (वाचम् इन्वसि) = प्रभु की वाणी को प्रेरित करता है । तेरे रक्षण से हृदय में प्रभु की वाणी सुन पड़ती है । हे (पवमान) = पवित्र करनेवाले सोम ! तू (रयिं अभ्यर्षसि) = रयि को, धन को प्राप्त कराता है, जो (पिशंग) = दीप्तियुक्त है, हमें तेजस्वी बनाता है, (बहुलम्) = सब आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये पर्याप्त है और (पुरुस्पृहम्) = बहुतों से स्पृहणीय है। अर्थात् अधिक से अधिक लोगों के हित में विनियुक्त हुआ हुआ सभी से वाचनीय होता है, सभी से प्रशंसित होता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - क्रियाशीलता सोम को पवित्र बनाये रखती है । सोम हमें प्रभु प्रेरणा को सुनने का पात्र बनाता है। और स्पृहणीय धनों को प्राप्त कराता है।