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नू॒नं पु॑ना॒नोऽवि॑भि॒: परि॑ स्र॒वाद॑ब्धः सुर॒भिन्त॑रः । सु॒ते चि॑त्त्वा॒प्सु म॑दामो॒ अन्ध॑सा श्री॒णन्तो॒ गोभि॒रुत्त॑रम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

nūnam punāno vibhiḥ pari sravādabdhaḥ surabhintaraḥ | sute cit tvāpsu madāmo andhasā śrīṇanto gobhir uttaram ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नू॒नम् । पु॒ना॒नः । अवि॑ऽभिः । परि॑ । स्र॒व॒ । अद॑ब्धः । सु॒र॒भिम्ऽत॑रः । सु॒ते । चि॒त् । त्वा॒ । अ॒प्ऽसु । मा॒दा॒मः॒ । अन्ध॑सा । श्री॒णन्तः॑ । गोभिः॑ । उत्ऽत॑रम् ॥ ९.१०७.२

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:107» मन्त्र:2 | अष्टक:7» अध्याय:5» वर्ग:12» मन्त्र:2 | मण्डल:9» अनुवाक:7» मन्त्र:2


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - हे परमात्मन् ! (नूनम्) निश्चय करके (अविभिः) अपनी रक्षाओं से (पुनानः) पवित्र करते हुए आप (परिस्रव) हमारे अन्तःकरण में आकर विराजमान हों, आप (अदब्धः) अखण्डनीय हैं, (सुरभिन्तरः) अत्यन्त शोभनीय हैं, हम लोग (उत्तरम्) अत्यन्त प्रेम से (गोभिः) ज्ञानरूप वृत्तियों द्वारा (श्रीणन्तः) तुम्हारा साक्षात्कार करते हुए (अन्धसा) मनोमय कोश से (अप्सु) कर्मों में (सुते, चित्) साक्षात्कार के लिये (त्वा) तुम्हारा (मदामः) स्तवन करते हैं ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे परमात्मा सच्चिदानन्दस्वरूप हैं, आपका स्वरूप अखण्डनीय है, इसलिये आपका ध्यान व्यापकभाव से ही किया जा सकता है, अन्यथा नहीं ॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सुरभिन्तर:

पदार्थान्वयभाषाः - (अविभिः) = रक्षा करने वालों से (पुनानः) = पवित्र किया जाता हुआ तू (नूनम्) = निश्चय से (परिस्रवः) = शरीर में चारों ओर गतिवाला हो। (अदब्धः) = यह सोम रोगकृमि व वासना रूप शत्रुओं से हिंसित नहीं होता। (सुरभिन्तर:) = जीवन को अतिशयेन सुगन्धित बनाता है। हे सोम ! (त्वा सुते) = तेरे उत्पन्न होने पर (चित्) = निश्चय से (अप्सु मदामः) = कर्मों में आनन्द का अनुभव करते हैं । हम (अन्धसा) = सात्त्विक अन्न के द्वारा तथा (गोभिः) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा इस (उत्तरम्) = अन्य सब धातुओं से उत्कृष्ट सोम को (श्रीणन्तः) = परिपक्व करते हैं। सात्त्विक अन्न 'सोम्य भोजन ' कहलाते हैं । ये भोजन सोमरक्षण की अनुकूलता वाले होते हैं। इसी प्रकार ज्ञान की वाणियों में अतिरिक्त समय को बिताने से इस सोम में वासनाओं का उबाल नहीं उत्पन्न होता ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोमरक्षण के होने पर जीवन रोगादि से अहिंसित व यशस्वी बनता है । शक्ति व स्फूर्ति उत्पन्न होकर कर्मों में आनन्द का अनुभव होता है। इस सोमरक्षण के लिये सात्त्विक अन्न का सेवन व स्वाध्याय साधन हैं ।
अन्य संदर्भ: सूचना - यहाँ 'गोभिः ' का अर्थ 'गोदुग्ध' भी किया जा सकता है। तब अर्थ इस प्रकार होगा कि हम 'सात्त्विक अन्न व गोदुग्ध' के सेवन से सोम का परिपाक करते हैं।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - हे परमात्मन् ! (नूनम्) निश्चयं (अविभिः) स्वरक्षाभिः (पुनानः) पवित्रयन् (परिस्रव) मदन्तःकरणे विराजतां (अदब्धः) भवान् अखण्डनीयः (सुरभिन्तरः) अत्यन्तशोभनीयः, वयं (उत्तरं) अतिप्रेम्णा (गोभिः) ज्ञानवृत्त्या (श्रीणन्तः) तं त्वां साक्षात्कुर्वन्तः (अन्धसा) मनोमयकोशेन (अप्सु) कर्मसु (सुते चित्) साक्षात्काराय (त्वा, मदामः) त्वां स्तुमः ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - For sure, pure and purifying, flow on with protective and promotive forces, gracious, undaunted, more and more charming and blissful. When you are realised in our actions, mixed as one with our energies, will and senses, then we rejoice and celebrate you in our perceptions with hymns of praise, and later in silent communion.