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प्र सो॑म दे॒ववी॑तये॒ सिन्धु॒र्न पि॑प्ये॒ अर्ण॑सा । अं॒शोः पय॑सा मदि॒रो न जागृ॑वि॒रच्छा॒ कोशं॑ मधु॒श्चुत॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra soma devavītaye sindhur na pipye arṇasā | aṁśoḥ payasā madiro na jāgṛvir acchā kośam madhuścutam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र । सो॒म॒ । दे॒वऽवी॑तये । सिन्धुः॑ । न । पि॒प्ये॒ । अर्ण॑सा । अं॒शोः । पय॑सा । म॒दि॒रः । न । जागृ॑विः । अच्छ॑ । कोश॑म् । म॒धु॒ऽश्चुत॑म् ॥ ९.१०७.१२

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:107» मन्त्र:12 | अष्टक:7» अध्याय:5» वर्ग:14» मन्त्र:2 | मण्डल:9» अनुवाक:7» मन्त्र:12


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सोम) हे सर्वोत्पादक परमात्मन् ! आप (देववीतये) विद्वानों की तृप्ति के लिये (अर्णसा) जल से (सिन्धुः) सिन्धु के (न) समान (प्रपिप्ये) वृद्धि को प्राप्त होते हैं, (अंशोः) जीवात्मा के (पयसा) अभ्युदय से (मदिरः) आह्लादक आनन्द (न) जैसे (मधुश्चुतम्, कोशम्) आनन्द के कोश अन्तःकरण को (अच्छ) प्राप्त होता है, इसी प्रकार (जागृविः) चैतन्यस्वरूप परमात्मा उपासकों की तृप्ति के लिये जीव के अन्तःकरण को आनन्द का स्रोत बनाता है ॥१२॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा सर्वव्यापक है, उसका आनन्द यद्यपि सर्वत्र परिपूर्ण है, तथापि उसको चित्त की निर्मलता द्वारा उपलब्ध करनेवाले उपासक प्राप्त कर सकते हैं, अन्य नहीं ॥१२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

मदिरो न जागृविः

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सोम) = वीर्य ! (देववीतये) = दिव्यगुणों की प्राप्ति के लिये तू (अर्णसा) = ज्ञानजल के द्वारा (प्रपिप्ये) = आप्यायित किया जाता है, (न) = जैसे कि (सिन्धुः) = समुद्र नदियों के जल से । वस्तुतः ज्ञान प्राप्ति में लगे रहने से सोम के रक्षण का सम्भव होता है, और रक्षित सोम हमारे में दिव्य गुणों का वर्धन करता है। (अंशोः) = ज्ञानरश्मियों के (पयसा) = आप्यायन से (मदिरः न) = अत्यन्त उल्लासयुक्त सा यह सोम (जागृविः) = सदा जागरूक होता है, यह हमारे पर रोग आदि का आक्रमण नहीं होने देता । यह हमें (मधुश्चतं कोशं अच्छा) = मधु को टपकानेवाले आनन्दमय कोश की ओर ले जाता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- ज्ञान प्राप्ति में लगे रहने से शरीर में आप्यायित हुआ हुआ सोम दिव्य गुणों का वर्धन करता है । यह उल्लास को पैदा करता है, सदा जागरूक पहरेदार होकर हमें रोगाक्रान्त नहीं होने देता। आनन्दमय कोश की ओर हमें ले चलता है ।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सोम) हे परमात्मन् ! भवान् (देववीतये) विदुषां तृप्तये (अर्णसा) जलेन (सिन्धुः, न) सिन्धुरिव (प्रपिप्ये) वर्धते (अंशोः) जीवात्मनः (पयसा) अभ्युदयेन (मदिरः) आह्लादकानन्दः (न) यथा (मधुश्चुतम्, कोशं) आनन्दकोशमन्तःकरणं (अच्छ) प्राप्नोति, एवं हि (जागृविः) चैतन्यस्वरूपः परमात्मा स्वोपासकतृप्तये जीवान्तःकरणमानन्दस्रोतः करोति ॥१२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O Soma, be full with the liquid spirit of joy like the sea which is full with the flood of streams and rivers, and, like the very spirit of ecstasy overflowing with delicious exuberance of light divine, ever awake, flow into the devotee’s heart blest with the honeyed joy of divinity.