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परी॒तो षि॑ञ्चता सु॒तं सोमो॒ य उ॑त्त॒मं ह॒विः । द॒ध॒न्वाँ यो नर्यो॑ अ॒प्स्व१॒॑न्तरा सु॒षाव॒ सोम॒मद्रि॑भिः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

parīto ṣiñcatā sutaṁ somo ya uttamaṁ haviḥ | dadhanvām̐ yo naryo apsv antar ā suṣāva somam adribhiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

परि॑ । इ॒तः । सि॒ञ्च॒त॒ । सु॒तम् । सोमः॑ । यः । उ॒त्ऽत॒मम् । ह॒विः । द॒ध॒न्वान् । यः । नर्यः॑ । अ॒प्ऽसु । अ॒न्तः । आ । सु॒साव॑ । सोम॑म् । अद्रि॑ऽभिः ॥ ९.१०७.१

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:107» मन्त्र:1 | अष्टक:7» अध्याय:5» वर्ग:12» मन्त्र:1 | मण्डल:9» अनुवाक:7» मन्त्र:1


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सोमम्) सर्वोत्पादक परमात्मा को (सुतम्) जो सर्वत्र विद्यमान है, (अप्स्वन्तः) जो प्रकृति के सूक्ष्म कारण में विराजमान है, उसको (अद्रिभिः) चितवृत्तियों द्वारा यज्ञ का अधिष्ठाता (आसुषाव) भली-भाँति साक्षात्कार करता है, (यः, सोमः) जो सोम (उत्तमं, हविः) विद्वानों का सर्वोपरि पूजनीय है, (नर्यः) सब नरों का हितकारी है तथा (दधन्वान्) सबको धारण करता हुआ जो सर्वत्र विद्यमान है, उसको (इतः) यज्ञादि कर्मों के अनन्तर ज्ञानवृत्तिरूप वृष्टि से (परिषिञ्चत) परिसिञ्चन करें ॥१॥
भावार्थभाषाः - सोम, जो सम्पूर्ण संसार की उत्पत्ति का कारण है और जो सौम्य स्वभावों का प्रदान करनेवाला है, वह सोमरूप परमात्मा संसार में ओत-प्रोत हो रहा है। उसका अपनी ज्ञानरूपी वृत्तियों द्वारा साक्षात् करना ही वृत्तियों से सिञ्चन करना है ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

जीवन यज्ञ में सोम की आहुति

पदार्थान्वयभाषाः - (सुतम्) = उत्पन्न हुए हुए सोम को (इतः) = इस उत्पत्ति स्थल से (परिषिञ्चत) = शरीर में चारों ओर सिक्त करो। (यः सोमः) = यह जो सोम है, वह (उत्तमं हविः) = उत्तम हवि है। यज्ञ में जैसे हवि का प्रक्षेप होता है, उसी प्रकार जीवन-यज्ञ में इस सोम रूप हवि का प्रक्षेप करना चाहिये । इसे नष्ट नहीं होने देना चाहिये । (यः) = जो सोम (दधन्वान्) = हमारा धारण करता है, (नर्यः) = नरहितकारी है, (अप्सु अन्तरा) = सदा कर्मों में इसका निवास है। कर्मों में लगे रहने से ही यह सुरक्षित रहता है । (सोमम्) = इस सोम को (अद्रिभिः) = उपासनाओं के द्वारा सुषाव उत्पन्न करता है। प्रभु की उपासना सोमरक्षण की अनुकूलतावाली है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - उत्पन्न सोम को जीवन-यज्ञ में ही आहुत करना चाहिये । वह धारण करता है, हितकारी है। इसका रक्षण कर्मों में लगे रहने व उपासना के द्वारा होता है ।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सोमम्) सर्वोत्पादकं (सुतं) सर्वत्र विद्यमानं (अप्स्वन्तः) प्रकृतेः सूक्ष्मकारणे विराजमानं परमात्मानं (अद्रिभिः) चित्तवृत्तिभिर्विद्वांसो होतारः (आसुषाव) सम्यक्साक्षात्करोति (यः, सोमः) यः परमात्मा (उत्तमं, हविः) विदुषां मान्यतमः (नर्यः) सर्वजनस्य हितः (दधन्वान्) सर्वेषां धारकः तं (इतः) यज्ञादिकर्मानन्तरं ज्ञानवृत्तिरूपदृष्ट्या (परिषिञ्चत) यूयं परिक्षरत ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - From here onward sprinkle Soma with love and service, Soma, the spirit of beauty, peace and joy of life, Soma, realised with best of thoughts, effort and determined discipline of meditation, Soma which bears the best materials for creative yajna of personal and social development, Soma which is the leading light of life, realised within in the heart and our Karmas performed in life.