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इन्द्र॒मच्छ॑ सु॒ता इ॒मे वृष॑णं यन्तु॒ हर॑यः । श्रु॒ष्टी जा॒तास॒ इन्द॑वः स्व॒र्विद॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indram accha sutā ime vṛṣaṇaṁ yantu harayaḥ | śruṣṭī jātāsa indavaḥ svarvidaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्र॑म् । अच्छ॑ । सु॒ताः । इ॒मे । वृष॑णम् । य॒न्तु॒ । हर॑यः । श्रु॒ष्टी । जा॒तासः॑ । इन्द॑वः । स्वः॒ऽविदः॑ ॥ ९.१०६.१

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:106» मन्त्र:1 | अष्टक:7» अध्याय:5» वर्ग:9» मन्त्र:1 | मण्डल:9» अनुवाक:7» मन्त्र:1


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (स्वर्विदः) ज्ञानादिगुण (इन्दवः) जो प्रकाशस्वरूप हैं, (जातासः) जो सर्वत्र विद्यमान हैं और जो (सुताः) संस्कृत अर्थात् उपासना द्वारा जो साक्षात्कार को प्राप्त हैं, (हरयः) जो सब दुःखों के हरण करनेवाले हैं, (इमे) ये परमात्मा के सब गुण (वृषणम्) कर्मद्वारा उद्योग की वृष्टि करनेवाले (इन्द्रम्) कर्मयोगी को (श्रुष्टी) शीघ्र (अच्छ, यन्तु) प्राप्त हों ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो पुरुष उद्योगी हैं अर्थात् कर्मयोगी हैं, उनको परमात्मा के गुणों की उपलब्धि अवश्यमेव होती है ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

स्वर्विदः

पदार्थान्वयभाषाः - (इमे) = ये (सुताः) = उत्पन्न हुए हुए (हरयः) = सर्व रोग हर सोमकण (वृषणम्) शक्तिशाली (इन्द्रं) = जितेन्द्रिय पुरुष की (अच्छ) = ओर (यन्तु) =‍ गति वाले हों । जितेन्द्रिय पुरुष ही इनका रक्षण कर पाता है । (जातासः) = उत्पन्न हुए हुए ये (इन्दवः) = सोमकण श्रुष्टी शीघ्र ही (स्वर्विदः) = प्रकाश को प्राप्त करानेवाले होते हैं। ये ज्ञानाग्नि का ईंधन बनते हैं, बुद्धि को तीव्र बनाते हैं, और इस प्रकार ज्ञान को प्राप्त करानेवाले होते हैं ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - जितेन्द्रिय पुरुष इन सोमकणों का रक्षण करता है। रक्षित सोमकण प्रकाश को प्राप्त कराते हैं ।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (स्वर्विदः) ज्ञानादिगुणाः (इन्दवः) ये प्रकाशस्वरूपाः (जातासः) सर्वत्र विद्यमानाः (सुताः) उपासनया साक्षात्त्वं प्राप्ताः (हरयः) दुःखस्य   हर्तारः (इमे) इमे परमात्मगुणाः (वृषणम्) कर्मद्वारा उद्योगवर्षुकं (इन्द्रम्) कर्मयोगिनं (श्रुष्टी) सत्वरं (अच्छ, यन्तु) साधु लभन्ताम् ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - May these realised, cleansed and confirmed, blessed, beautiful and brilliant virtues and sanskars touching the bounds of divine bliss, emerging and risen in the mind, well reach and seep into the heart core of the soul completely and permanently.