'अत्री, बाधू व द्वयु' का विनाश
पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्दो) = सोम ! (त्वम्) = तू (अस्मत्) = हमारे से (सनेमि) = शीघ्र ही [सनेमि क्षिप्रं नि०] (अदेवम्) = देववृत्ति के विरोधी (कञ्चित्) = किसी (अत्रिणम्) = हमें खा जानेवाले राक्षसीभाव को (अप) = [गमय] दूर कर । (परिबाधः) = चारों ओर से पीड़ित करनेवाले काम, क्रोध आदि शत्रुओं को (साह्वान्) = कुचलते हुए, (द्वयुम्) = असत्यानृत-छलकपट युक्त-मायावी व्यवहार को हमारे से दूर कर ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-सोमरक्षण के होने पर मनुष्य राक्षसी भावों से ऊपर उठता है, चारों ओर से पीड़ित करनेवाले काम-क्रोध आदि शत्रुओं को जीत पाता है, द्वैतभाव वाले मायायुक्त व्यवहार से दूर रहता है । अगले सूक्त में प्रारम्भिक व अन्त के मन्त्रों का ऋषि 'अग्नि' आगे चलनेवाला है, यह 'चाक्षुषः ' चक्षु से सदा देखकर चलता है। यह सोम का शंसन करता हुआ कहता है-