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सने॑मि॒ त्वम॒स्मदाँ अदे॑वं॒ कं चि॑द॒त्रिण॑म् । सा॒ह्वाँ इ॑न्दो॒ परि॒ बाधो॒ अप॑ द्व॒युम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sanemi tvam asmad ām̐ adevaṁ kaṁ cid atriṇam | sāhvām̐ indo pari bādho apa dvayum ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सने॑मि । त्वम् । अ॒स्मत् । आ । अदे॑वम् । कम् । चि॒त् । अ॒त्रिण॑म् । सा॒ह्वान् । इ॒न्दो॒ इति॑ । परि॑ । बाधः॑ । अप॑ । द्व॒युम् ॥ ९.१०५.६

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:105» मन्त्र:6 | अष्टक:7» अध्याय:5» वर्ग:8» मन्त्र:6 | मण्डल:9» अनुवाक:7» मन्त्र:6


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! (त्वम्) आप (सनेमि) हम पर ऐसी कृपा करें, जिससे (अदेवम्) जो अदैवी सम्पत्ति का पुरुष है, (अत्रिणम्) जो हिंसक है, (आ) और जो (द्वयुम्) सत्यानृतरूपी माया युक्त है, ऐसे (कञ्चित्, साह्वान्) सब शत्रु जो कई एक हैं, (बाधः) हमको पीड़ा देनेवाले हैं, उनको (अस्मत्) हमसे (परिजहि) दूर करें ॥६॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा मायावी पुरुषों से अपने भक्तों की रक्षा अवश्यमेव करता है अर्थात् परमात्मा के सामने मायावी पुरुषों की माया और दम्भियों का दम्भ कदापि नहीं चलता ॥६॥ यह १०५ वाँ सूक्त और आठवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'अत्री, बाधू व द्वयु' का विनाश

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्दो) = सोम ! (त्वम्) = तू (अस्मत्) = हमारे से (सनेमि) = शीघ्र ही [सनेमि क्षिप्रं नि०] (अदेवम्) = देववृत्ति के विरोधी (कञ्चित्) = किसी (अत्रिणम्) = हमें खा जानेवाले राक्षसीभाव को (अप) = [गमय] दूर कर । (परिबाधः) = चारों ओर से पीड़ित करनेवाले काम, क्रोध आदि शत्रुओं को (साह्वान्) = कुचलते हुए, (द्वयुम्) = असत्यानृत-छलकपट युक्त-मायावी व्यवहार को हमारे से दूर कर ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-सोमरक्षण के होने पर मनुष्य राक्षसी भावों से ऊपर उठता है, चारों ओर से पीड़ित करनेवाले काम-क्रोध आदि शत्रुओं को जीत पाता है, द्वैतभाव वाले मायायुक्त व्यवहार से दूर रहता है । अगले सूक्त में प्रारम्भिक व अन्त के मन्त्रों का ऋषि 'अग्नि' आगे चलनेवाला है, यह 'चाक्षुषः ' चक्षु से सदा देखकर चलता है। यह सोम का शंसन करता हुआ कहता है-
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्दो) हे भगवन् ! (त्वम्) भवान् (सनेमि) अस्मासु ईदृशीं कृपां करोतु यया (अदेवम्) दिव्यसम्पद्रहितं (अत्रिणम्) हिंसकं (आ) अथ च (द्वयुम्) सत्यानृतरूपमायया युक्तं (कञ्चित्, साह्वान्) कतिपयान् शत्रून् (बाधः) बाधकान् (अस्मत्) अस्मत्तः (परिजहि) अपसारयतु ॥६॥ इति पञ्चोत्तरशततमं सूक्तं अष्टमो वर्गश्च समाप्तः ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O spirit of divine beauty, bliss and brilliance, one with us in all acts and movements, courageous, bold and forbearing, ward off from us all impieties and keep away the impious and ungenerous people wherever they be, whoever is a devouring destroyer, and a double dealer.