पदार्थान्वयभाषाः - (सुन्वानस्य) = उत्पन्न किये जाते हुए (अन्धसः) = इस (अदनीय) = शरीर में ही (धारणीय) = सोम के अर्थात् सोम सम्बन्धी (तद्) = उस (वचः) = वचन को (मर्तः) = मनुष्य (न वृत) = [वृ- Keep away, oppose] अपने से दूर न रखे व इस वचन का विरोध न करे कि हे (भृगवः) = ज्ञान से अपना परिपक्व करनेवाले पुरुषो! (अराधसं) = सिद्धि में विद्याभूत (श्वानम्) = इस लोभरूप कुत्ते को, विशेषतया स्वाद के लोभ को (अपहत) = अपने से सुदूर भगानेवाले होवो, (न मखम्) = यज्ञ को नहीं । लोभ को दूर करके सदा यज्ञशील बने रहो। स्वाद का लोभ सोमरक्षण का प्रबल विरोधी है। स्वाद सोम का विनाशक है। इसके विपरीत सदा यज्ञशेष को खाने की वृत्ति सोमरक्षण की अनुकूलता वाली है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोमरक्षण के लिये मूलभूत बात यह है कि हम स्वाद को जीतकर सदा यज्ञशील बनें, यज्ञशेष का ही सेवन करनेवाले बनें ।