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प्र सु॑न्वा॒नस्यान्ध॑सो॒ मर्तो॒ न वृ॑त॒ तद्वच॑: । अप॒ श्वान॑मरा॒धसं॑ ह॒ता म॒खं न भृग॑वः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra sunvānasyāndhaso marto na vṛta tad vacaḥ | apa śvānam arādhasaṁ hatā makhaṁ na bhṛgavaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र । सु॒न्वा॒नस्य॑ । अन्ध॑सः । मर्तः॑ । न । वृ॒त॒ । तत् । वचः॑ । अप॑ । श्वान॑म् । अ॒रा॒धस॑म् । ह॒त । म॒खम् । न । भृग॑वः ॥ ९.१०१.१३

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:101» मन्त्र:13 | अष्टक:7» अध्याय:5» वर्ग:3» मन्त्र:3 | मण्डल:9» अनुवाक:6» मन्त्र:13


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रसुन्वानस्य) सर्वोत्पादक परमात्मा (अन्धसः) जो उपासनीय है, (तद्वचः) उसकी वाणी को (मर्तः) सन्मार्ग में विघ्न करनेवाला पुरुष (न वृत) न ग्रहण करे और (श्वानम्) उस विघ्नकारी को (अराधसम्) जो नास्तिकता के भाव से सत्कर्मों से रहित है, उसको (न) जैसे (भृगवः) परिपक्क बुद्धिवाले (मखम्) हिंसारूपी यज्ञ का हनन करते हैं, इस प्रकार (अपहत) आप लोग इन विघ्नकारियों का हनन करें ॥१३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में हिंसा के दृष्टान्त से नास्तिकों की संगति का त्याग वर्णन किया है ॥१३॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अराधसं श्वानम् अपहत

पदार्थान्वयभाषाः - (सुन्वानस्य) = उत्पन्न किये जाते हुए (अन्धसः) = इस (अदनीय) = शरीर में ही (धारणीय) = सोम के अर्थात् सोम सम्बन्धी (तद्) = उस (वचः) = वचन को (मर्तः) = मनुष्य (न वृत) = [वृ- Keep away, oppose] अपने से दूर न रखे व इस वचन का विरोध न करे कि हे (भृगवः) = ज्ञान से अपना परिपक्व करनेवाले पुरुषो! (अराधसं) = सिद्धि में विद्याभूत (श्वानम्) = इस लोभरूप कुत्ते को, विशेषतया स्वाद के लोभ को (अपहत) = अपने से सुदूर भगानेवाले होवो, (न मखम्) = यज्ञ को नहीं । लोभ को दूर करके सदा यज्ञशील बने रहो। स्वाद का लोभ सोमरक्षण का प्रबल विरोधी है। स्वाद सोम का विनाशक है। इसके विपरीत सदा यज्ञशेष को खाने की वृत्ति सोमरक्षण की अनुकूलता वाली है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोमरक्षण के लिये मूलभूत बात यह है कि हम स्वाद को जीतकर सदा यज्ञशील बनें, यज्ञशेष का ही सेवन करनेवाले बनें ।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र सुन्वानस्य) उत्पादयितुः परमात्मनः (अन्धसः) उपासनीयस्य (तत् वचः) तस्य वाचं (मर्तः) सन्मार्गे विघ्नकारिपुरुषः (न वृत) न गृह्णातु (श्वानम्) तं विघ्नकारिणं च (अराधसं) यो हि नास्तिकत्वेन सत्कर्मरहितस्तं (न) यथा (भृगवः) परिपक्वबुद्धयः (मखं) हिंसायज्ञं घ्नन्ति एवं (अपहत) तं विघ्नकारिणमपि नाशयत ॥१३॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - That silent voice of the generative illuminative Soma of divine food, energy and enlightenment, the ordinary mortal does not perceive. O yajakas, ward off the clamours and noises which disturb the meditative yajna as men of wisdom ward them off to save their yajna.