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सोमा॑: पवन्त॒ इन्द॑वो॒ऽस्मभ्यं॑ गातु॒वित्त॑माः । मि॒त्राः सु॑वा॒ना अ॑रे॒पस॑: स्वा॒ध्य॑: स्व॒र्विद॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

somāḥ pavanta indavo smabhyaṁ gātuvittamāḥ | mitrāḥ suvānā arepasaḥ svādhyaḥ svarvidaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सोमाः॑ । प॒व॒न्ते॒ । इन्द॑वः । अ॒स्मभ्य॑म् । गा॒तु॒वित्ऽत॑माः । मि॒त्राः । सु॒वा॒नाः । अ॒रे॒पसः॑ । सु॒ऽआ॒ध्यः॑ । स्वः॒ऽविदः॑ ॥ ९.१०१.१०

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:101» मन्त्र:10 | अष्टक:7» अध्याय:5» वर्ग:2» मन्त्र:5 | मण्डल:9» अनुवाक:6» मन्त्र:10


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सोमाः) परमात्मा के ज्ञानादि गुण (इन्दवः) प्रकाशक (गातुवित्तमाः) जो शब्दादि गुणों में श्रेष्ठ हैं (मित्राः) सबके मित्रभूत हैं, (सुवानाः) जो स्वसत्ता से सर्वत्र विद्यमान हैं, (अरेपसः) जो अविद्यादि दोषों से रहित हैं, जो (स्वाध्यः) धारण करने योग्य हैं, (स्वर्विदः) जो सर्वज्ञान के हेतु होने के कारण सर्वज्ञ कहे जा सकते हैं, वे (अस्मभ्यम्) हमको (पवन्ते) पवित्रता प्रदान करें ॥१०॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा के गुणों के वर्णन करने से ज्ञान और पवित्रता बढ़ती है ॥१०॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

स्वाध्यः स्वर्विदः

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्दवः) = हमें शक्तिशाली बनानेवाले (सोमाः) = सोमकण (पवन्तः) = प्राप्त होते हैं। ये सोमकण (अस्भ्यम्) = हमारे लिये (गातुवित्तमा:) = अधिक से अधिक मार्ग के प्रापक हैं। सोमरक्षक पुरुष मर्यादित जीवन वाला होता हुआ मार्गभ्रष्ट नहीं होता। ये सोमकण (मित्र:) = हमें प्रमीति से [मृत्यु से] बचानेवाले हैं, (सुवानः) = उत्पन्न किये जाते हुए व शरीर में प्रेरित किये जाते हुए ये (अरेपसः) - हमारे जीवन को निर्दोष बनाते हैं। (स्वाध्यः) = ये उत्तम ध्यानवाले हैं, हमारी वृत्ति को ध्यानयुक्त करते हैं । इस प्रकार (स्वर्विदः) = अन्त: प्रकाश को प्राप्त कराते हैं [स्वः = प्रकाश, विद् लाभे] ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोमरक्षण हमारे जीवन को 'मर्यादित, नीरोग व निर्दोष' बनाता है। ये हमें ध्यानवृत्ति वाला बनाकर अन्तः प्रकाश प्राप्त कराते हैं।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्दवः) प्रकाशकाः (सोमाः) परमात्मनो ज्ञानादिगुणाः (गातुवित्तमाः) शब्दादिगुणेषु श्रेष्ठाः (मित्राः) सर्वहिताः (सुवानाः) स्वसत्तया सर्वत्र विद्यमानाः (अरेपसः) अविद्यादिदोषरहिताः (स्वाध्यः) धारणार्हाः (स्वर्विदः) सर्वज्ञानहेतुत्वात्सर्वज्ञाः (अस्मभ्यं) अस्मदर्थं (पवन्ते) पवित्रतां प्रददतु ॥१०॥
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डॉ. तुलसी राम

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