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हि॒न्वा॒नासो॒ रथा॑ इव दधन्वि॒रे गभ॑स्त्योः । भरा॑सः का॒रिणा॑मिव ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

hinvānāso rathā iva dadhanvire gabhastyoḥ | bharāsaḥ kāriṇām iva ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

हि॒न्वा॒नासः॑ । रथाः॑ऽइव । द॒ध॒न्वि॒रे । गभ॑स्त्योः । भरा॑सः । का॒रिणा॑म्ऽइव ॥ ९.१०.२

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:10» मन्त्र:2 | अष्टक:6» अध्याय:7» वर्ग:34» मन्त्र:2 | मण्डल:9» अनुवाक:1» मन्त्र:2


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (रथाः, इव) विद्युत् के समान ((गभस्त्योः, दधन्विरे) अपनी चमत्कृत रशिमयों को धारण किये हुये है। (हिन्वानासः) सदैव गतिशील है और (कारिणाम्, इव) कर्मयोगियों के समान सदैव सत्कर्म के (भरासः) भार उठाने को समर्थ है ॥२॥
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार कर्मयोगी सत्कर्म को करने में सदैव तत्पर रहता है, इसी प्रकार संसार की उत्पत्ति स्थिति प्रलयादि कर्मों में परमात्मा सदैव तत्पर रहता है अर्थात् उक्त कर्म उस में स्वतःसिद्ध और अनायास से होते हैं, इसी अभिप्राय से ब्राह्मणग्रन्थों में उसे “सर्वकर्मा सर्वगन्धः सर्वरसः” ऐसा प्रतिपादन किया है कि सर्व प्रकार के कर्म और सब प्रकार के गन्ध तथा रस उसी से अपनी-२ सत्ता का लाभ करते हैं। इस प्रकार परमात्मा सदैव गतिशील है, इसी अभिप्राय से गतिकर्मा रंहति धातु से निष्पन्न रथ की उपमा दी है। जो लोग उसको अक्रिय कहकर यह सिद्ध करते हैं कि शुद्ध ब्रह्म में कोई क्रिया नहीं होती, क्रिया करने की शक्ति माया के साथ मिलकर आती है, अन्यथा नहीं, इसलिये ईश्वर जगत् का कारण है, ब्रह्म नहीं, ऐसा कथन करनेवाले वैदिक सिद्धान्त से सर्वथा भिन्न हैं, क्योंकि वेदों में “भूमिं जनयन् देव एकः” यजुः १७।१९। “सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्’” “विश्वस्य कर्त्ता भुवनस्य गोप्ता” मुं० १।१।१ इत्यादि वेदोपनिषद् के वाक्यों में शुद्ध ब्रह्म में जगत्कर्तृत्व कदापि न पाया जाता, यदि ईश्वर में क्रिया न होती, इससे स्पष्ट सिद्ध है कि ईश्वर में क्रिया स्वतःसिद्ध है, इसी अभिप्राय से कहा है कि “स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च” ॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सोमकणों का भुजाओं में धारण

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (इव) = जैसे (रथाः) = रथ लक्ष्यदेश की ओर जाते हैं, इसी प्रकार शरीरस्थ सोमकण (हिन्वानासः) = प्रभु प्राप्ति की ओर प्रेरित होते हैं। रथ हमें लक्ष्य - स्थान पर ले जाता है । सोमकण भी हमें 'साकाष्ठा, सापरागति:' इन शब्दों में वर्णित प्रभु की ओर ले जाते हैं । [२] (इव) = जैसे (कारिणाम्) = कर्म करनेवालों की भुजाओं पर (भरासः) = भार (दधन्विरे) = धारण किये जाते हैं, इसी प्रकार ये सोम भी (गभस्त्योः) = हमारी भुजाओं में स्थापित किये जाते हैं। ये सोमकण ही भुजाओं को शक्तिशाली बनाते हैं। इनके भुजाओं में स्थापन का यह भी भाव है कि जब मनुष्य सदा क्रियाशील बना रहता है तो वासनाओं से अनाक्रान्त होने के कारण वह इनका रक्षण कर पाता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोमकण ही सुरक्षित होकर भुजाओं को शक्तिसाली बनाते हैं, तथा जीवनयात्रा की सफल पूर्ति का साधन बनते हैं ।
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - सः (रथाः, इव) विद्युदिव (गभस्त्योः, दधन्विरे) स्वचमत्कृतरश्मीनां धारकः (हिन्वानासः) सततगतिशीलोऽस्ति तथा च (कारिणाम्, इव) कर्मयोगिन इव (भरासः) शश्वत्सत्कर्मभारं वोढुमुद्यतोऽस्ति ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Dynamic are the seekers like heroes commanding superfast chariots laden with riches, holding controls in their hands, their shouts of victory rising like poet’s songs of celebration.