र॒क्षो॒हा वि॒श्वच॑र्षणिर॒भि योनि॒मयो॑हतम् । द्रुणा॑ स॒धस्थ॒मास॑दत् ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
मन्त्र उच्चारण
rakṣohā viśvacarṣaṇir abhi yonim ayohatam | druṇā sadhastham āsadat ||
पद पाठ
र॒क्षः॒ऽहा । वि॒श्वऽच॑र्षणिः । अ॒भि । योनि॑म् । अयः॑ऽहतम् । द्रुणा॑ । स॒धऽस्थ॑म् । आ । अ॒स॒द॒त् ॥ ९.१.२
ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:1» मन्त्र:2
| अष्टक:6» अध्याय:7» वर्ग:16» मन्त्र:2
| मण्डल:9» अनुवाक:1» मन्त्र:2
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - हे परमात्मन् ! आप (रक्षोहा) राक्षसों के हनन करनेवाले हो, (विश्वचर्षणिः) सम्पूर्ण विश्व के द्रष्टा हो (अभियोनिम्) सबके उत्पत्तिस्थान हो (अयोऽहतम्) किसी शस्त्र-अस्त्र से छेदन नहीं किये जाते (द्रुणा) गतिशील और (सधस्थम्) मध्यस्थरूप से सर्वत्र (आसदत्) स्थिर हो ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे परमात्मन् ! आप सर्वत्र परिपूर्ण और विश्व के दृष्टा हो तथा पापकारी हिंसक राक्षसों के हन्ता हो, आप हमारे हृदय में आकर विराजमान हों ॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार
'रक्षोहा 'विश्वचर्षणि' सोम
पदार्थान्वयभाषाः - [१] गत मन्त्र में वर्णित सोम (रक्षोहा) = शरीरस्थ रोगकृमियों का नाश करनेवाला है। रोगकृमि रक्षस् हैं, ये अपने रमण के लिये हमारा क्षय करते हैं । रक्षित हुआ हुआ वीर्य [सोम] इन्हें विनष्ट करता है । (विश्वचर्षणिः) = यह सोम विश्वद्रष्टा है, ज्ञानाग्नि का ईंधन बनकर यह ज्ञान को दीप्त करता है और हमें सब तत्त्वों के दर्शन के योग्य बनाता है। यह सोम (योनिम्) = अपने उत्पत्ति- स्थानभूत शरीर को (अभि आसदत्) = आभिमुख्येन प्राप्त होता है । प्राणसाधना के होने पर यह ऊर्ध्वगतिवाला होकर शरीर में ही व्याप्त हो जाता है। [२] इसके शरीर में व्याप्त होने से यह शरीर (अयो हतम्) = [हन् गतौ] लोहकणों से व्याप्त होता है, रुधिर में लोहकणों की [Iron] कमी नहीं हो जाती। यह शरीर द्रुणा (सधस्थम्) = [द्रु गतौ ] शरीर की सब नाड़ियों में संचरित होनेवाले रुधिर के साथ स्थित होता है [सधः सह ], अर्थात् शरीर में रुधिर की कमी नहीं होती ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-रक्षित सोम रोगकृमियों को विनष्ट करता है, हमारे ज्ञान को दीप्त बनाता है। इसके रक्षण से शरीर में लोहकणों व रुधिर की न्यूनता नहीं होती ।
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - हे परमात्मन् ! भवान् (रक्षोहा) रक्षसां हन्ता (विश्वचर्षणिः) समस्तस्य जगतो द्रष्टा (अभियोनिम्) सर्वस्योत्पत्तिस्थानम् (अयोऽहतम्) शस्त्रास्त्रैरच्छेद्यः (द्रुणा) गतिशीलः (सधस्थम्) मध्यस्थरूपेण सर्वत्र (आसदत्) स्थिरश्च अस्ति ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम
पदार्थान्वयभाषाः - You are the destroyer of negativity, destructivity and evil and darkness, you are universal watcher and guardian of all that is, you are centre of the origin and end of existence, veiled in impenetrable womb of gold, you are ever on the move yet settled and constant in the house of life. (Soma is Divinity Itself.)
