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न सी॒मदे॑व आप॒दिषं॑ दीर्घायो॒ मर्त्य॑: । एत॑ग्वा चि॒द्य एत॑शा यु॒योज॑ते॒ हरी॒ इन्द्रो॑ यु॒योज॑ते ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

na sīm adeva āpad iṣaṁ dīrghāyo martyaḥ | etagvā cid ya etaśā yuyojate harī indro yuyojate ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न । सी॒म् । अदे॑वः । आ॒प॒त् । इष॑म् । दी॒र्घा॒यो॒ इति॑ दीर्घऽआयो । मर्त्यः॑ । एत॑ऽग्वा । चि॒त् । यः । एत॑शा । यु॒योज॑ते । हरी॒ इति॑ । इन्द्रः॑ । यु॒योज॑ते ॥ ८.७०.७

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:70» मन्त्र:7 | अष्टक:6» अध्याय:5» वर्ग:9» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:8» मन्त्र:7


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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - उस परमात्मा की स्तुति करता हूँ, जो (असाळ्हम्) दुष्टों को कभी क्षमा नहीं करता। जिस कारण (उग्रम्) वह दण्डविधाता है और जगत् की उपद्रवकारी (पृतनासु) सेनाओं का (सासहिम्) शासक और विनाशक है। (यस्मिन्+जायमाने) जिसके सर्वत्र विद्यमान होने के कारण (उरुज्रयः) महा वेगवान् (महीः) बड़े (धेनवः) द्युलोक और पृथिव्यादिलोक (सम्+अनोनवुः) नियम से चल रहे हैं। धेनुशब्दार्थ स्वयं श्रुति करती है, (द्यावः+क्षामः) द्युलोक और पृथिव्यादिलोक ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यों ! वह जगदीश महान्यायी और महोग्र है, जिसकी आज्ञा में यह सम्पूर्ण जगत् चल रहा है, उसकी कीर्ति का गान करो ॥४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

शरीररूप व्रज

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (दीर्घायो) = [दीर्घ जीवनवाले] नित्य इन्द्र ! (अदेवः मर्त्यः) = देव [प्रभु] से दूर रहनेवाला मनुष्य (सीम्) = निश्चय से (इषं न आपत्) = प्रभु की प्रेरणा को नहीं प्राप्त करता । प्रभु के सम्पर्क में रहनेवाला ही प्रभु की प्रेरणा को प्राप्त करता है। [२] (एतग्वा) = उस श्वेत शुद्ध प्रभु की ओर गतिवाला (चित्) = ही (यः) = जो (एतशा) = शुद्ध-श्वेत वर्णवाले (हरी:) = इन्द्रियाश्वों को (युयोजते) = अपने शरीररथ में जोतता है, वही (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय बनकर (युयोजते) = इन्द्रियाश्वों को जोतता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु से दूर रहनेवाला व्यक्त प्रभु-प्रेरणा को नहीं प्राप्त करता। शुद्ध प्रभु की ओर चलनेवाला मनुष्य ही जितेन्द्रिय बनकर शुद्ध इन्द्रियाश्वों को शरीररथ में जोतता है।
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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - तमीशं स्तौमि। कीदृशम्। असाळ्हम्=दुष्टान् प्रति असहनशीलम्। उग्रम्=दण्डविधायकम्। पुनः। जगदुपद्रवकारिणीषु। पृतनासु। सासहिम्=शासकं विनाशकञ्च। यस्मिन् जायमाने=सर्वत्र विद्यमाने सति। उरुज्रयः=महावेता। महीः=महत्यः। धेनवः+सम्+ अनोनवुः=नियमेन प्रचलन्ति। धेनुशब्दस्यार्थं स्वयमेव करोति। द्यावः=द्युलोकः। क्षामः=पृथिव्यादिलोका इति। धेनव इत्यस्यैव द्यावः क्षामश्चेत्यनुवादः ॥४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Never can an impious, ungodly mortal find that food and energy in life which that other person can find who yokes those dynamic energies and powers in his search for progress which Indra deploys in his creative and evolutionary programme of existence.