पदार्थान्वयभाषाः - [१] पत्नी पति से कहती है कि हे (सुशिप्र) = शोभन हनुओं व नासिकावाले उत्तम भोजन व प्राणायाम को करनेवाले ! (दम्पते) = शरीररूप गृह का रक्षण करनेवाले जीव ! (हिरण्ययं रथं) = ज्योतिर्मय शरीररथ पर तू-प्रातिक स्थित हो ही । इस शरीररथ को तू ज्ञानज्योति से परिपूर्ण कर । [२] (अध) = अब, जीवन को इस प्रकार सात्त्विक भोजनवाला, प्राणसाधनासम्पन्न व ज्योतिर्मय बनाने पर, हम उस प्रभु को सचेवहि प्राप्त हों, जो (द्युक्षं) = सदा प्रकाश में निवास करनेवाले हैं। (सहस्रपादम्) = सहस्रों पांवोंवाले हैं- सर्वत्र गतिवाले हैं। (रुषं) = आरोचमान व [अ-रुषं] क्रोधरहित हैं। (स्वस्तिगाम्) = कल्याण की ओर गतिवाले हैं-हमें कल्याणपथ पर ले चलनेवाले हैं और (अनेहसम्) = निष्पाप हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम सात्त्विक भोजन को करते हुए शरीररथ का रक्षण करें वे इसे ज्योतिर्मय बनाएँ। पति-पत्नी मिलकर प्रकाशमय प्रभु का उपासन करें कि हमें कल्याण के मार्ग ले चलते हुए निष्पाप जीवनवाला बनाएँगे।