वांछित मन्त्र चुनें

यद्वा॒वन्थ॑ पुरुष्टुत पु॒रा चि॑च्छूर नृ॒णाम् । व॒यं तत्त॑ इन्द्र॒ सं भ॑रामसि य॒ज्ञमु॒क्थं तु॒रं वच॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad vāvantha puruṣṭuta purā cic chūra nṛṇām | vayaṁ tat ta indra sam bharāmasi yajñam ukthaṁ turaṁ vacaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत् । व॒वन्थ॑ । पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒ । पु॒रा । चि॒त् । शू॒र॒ । नृ॒णाम् । व॒यम् । तत् । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । सम् । भ॒रा॒म॒सि॒ । य॒ज्ञम् । उ॒क्थम् । तु॒रम् । वचः॑ ॥ ८.६६.५

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:66» मन्त्र:5 | अष्टक:6» अध्याय:4» वर्ग:48» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:7» मन्त्र:5


0 बार पढ़ा गया

शिव शंकर शर्मा

ईश्वर स्वतन्त्रकर्ता है, इस ऋचा से दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यों ! (अन्धसः+मदे) धन देने से (यम्) जिस इन्द्र को (दुध्राः) दुर्धर राजा महाराजा आदि (न+वरन्ते) न रोक सकते (स्थिराः) स्थिर (मुराः+न) मनुष्य भी जिसको न रोक सकते। जो (सुशिप्रम्) शिष्टजनों को धनादिकों से पूर्ण करनेवाला है और जो (आदृत्य) श्रद्धा भक्ति और प्रेम से आदर करके उसकी (शशमानाय) कीर्ति की प्रशंसा करनेवाले जन को (सुन्वते) शुभकर्मी को और (जरित्रे) स्तुतिकर्ता को (उक्थ्यम्) वक्तव्यवचन, धन और पुत्रादिक पवित्र वस्तु (दाता) देता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - आशय यह है कि जो शुभकर्म में निरत हैं, वे उसकी कृपा से सुखी रहते हैं ॥२॥
0 बार पढ़ा गया

हरिशरण सिद्धान्तालंकार

यज्ञ व स्तोत्र

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (पुरुष्टुत) = पालक व पूरक स्तुतिवाले (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो! आप (यद् वावन्थ) = जो चाहते हैं। वह (नृणां) = मनुष्यों के (पुराचित्) = पालन व पूरण की दृष्टि से ही चाहते हों । [२] (तत्) = सो हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (वयं) = हम (ते) = आपके लिए (तुरं) = शीर्घ ही (यज्ञं) = यज्ञ को तथा (उक्थं वचः) = स्तुतिवचनों को (संभरामसि) = सम्यक् भृत करते हैं। इन यज्ञों व स्तोत्रों के द्वारा हम आपके प्रिय बन पाते हैं। यज्ञों से हम, भोगासक्त होने से बचे रहते हैं, तथा ये स्तोत्र हमारे सामने जीवन के लक्ष्य को उपस्थित करनेवाले होते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु सदा हमारे पालन व पूरण को चाहते हैं। हम यज्ञों व स्तोत्रों द्वारा प्रभु के प्रिय बनते हैं।
0 बार पढ़ा गया

शिव शंकर शर्मा

ईशः स्वतन्त्रः कर्तास्तीत्यनया दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः। अन्धसः+मदे=धनस्य मदे=धनं दातुमित्यर्थः। यमीशम्। दुध्राः=दुर्धराः। न+वरन्ते= निवारयितुं न शक्नुवन्ति। स्थिराः+मुरः=मुरा मर्त्या अपि न वरन्ते। कीदृशम्। सुशिप्रम्=शिष्टजनानां सुपूरकम्। यश्च। आदृत्य=आदरं कृत्वा श्रद्धया सह। शशमानाय=तमेव प्रशंसमानाय। सुन्वते=शुभकर्मसु आसक्ताय। जरित्रे=स्तुतिकर्त्रे। उक्थ्यम्=वक्तव्यं वचनम्। दाता भवति ॥२॥
0 बार पढ़ा गया

डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra, lord omnipotent universally adored and exalted, as you wish and want of humanity at the earliest in the beginning of creation, that we honour, abide and do without doubt or delay, the yajna, songs of adoration, word and worship all.