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अ॒वि॒प्रो वा॒ यदवि॑ध॒द्विप्रो॑ वेन्द्र ते॒ वच॑: । स प्र म॑मन्दत्त्वा॒या श॑तक्रतो॒ प्राचा॑मन्यो॒ अहं॑सन ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

avipro vā yad avidhad vipro vendra te vacaḥ | sa pra mamandat tvāyā śatakrato prācāmanyo ahaṁsana ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒वि॒प्रः । वा॒ । यत् । अवि॑धत् । विप्रः॑ । वा॒ । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । वचः॑ । सः । प्र । म॒म॒न्द॒त् । त्वा॒ऽया । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शातऽक्रतो । प्राचा॑मन्यो॒ इति॑ प्राचा॑ऽमन्यो । अह॑म्ऽसन ॥ ८.६१.९

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:61» मन्त्र:9 | अष्टक:6» अध्याय:4» वर्ग:37» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:7» मन्त्र:9


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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - (देव) हे सर्वपूज्य इन्द्र ! तू इस (अश्वस्य) संसार या घोड़े का (पौरः) पूरक और दायक है तू (गवाम्+पुरुकृत्) इन्द्रियों और गौ आदि पशुओं को बहुधा बनानेवाला है, (उत्सः+असि) तू आनन्द का प्रस्रवण है, (हिरण्ययः) सुवर्णादिक धातुओं और सूर्यादिक लोकों का स्वामी है। हे परमात्मन् ! (त्वे+दानम्) आपके निकट जो जगत् को देने के लिये दातव्य पदार्थ हैं, (नकिः+परिमर्धिषत्) उनको कोई रोक नहीं सकता। आप चाहें जिसको देवें, इसलिये (यद्+यद्+यामि) जो-जो मैं माँगता हूँ (तत्+तत्+आभर) सो-सो मुझको दे ॥६॥
भावार्थभाषाः - वेद प्रेममय स्तोत्रपद्धति है। किस प्रेम से किस सम्बन्ध से यहाँ प्रार्थना की जाती है, उस पर पाठकों को विचारना चाहिये। इसका भावार्थ स्पष्ट है ॥६॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

प्रभु की आज्ञा का पालन से आनन्द

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (शतक्रतो) = अनन्त शक्तिवाले, (प्राचामन्यो) = सर्वोत्कृष्ट ज्ञानशालिन् (अहंसन) = आत्मसम्मान के भाव को देनेहारे (इन्द्र) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो ! (अविप्रः वा) = अल्प ज्ञानवाला व्यक्ति (वा) = अथवा (विप्र) = ज्ञानी जो कोई भी (यद्) = जब (ते वचः अविधत्) = आपके वचन का [निर्देश का ] पालन करता है, (सः) = वह (त्वाया) = आपकी प्राप्ति की कामना से (प्रममन्दत्) = प्रकृष्ट आनन्द को प्राप्त करता है। [२] ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। ज्ञानप्राप्ति का भी उद्देश्य यही है कि हम प्रभु प्राप्ति के मार्ग पर चलें - प्रभु की आज्ञाओं को मानें। जब प्रभु के आदेशों का पालन करते हुए हम चलते हैं तो आनन्द की प्राप्ति होती ही है। बनाने पर जीवन में एक अद्भुत आनन्द
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु के निर्देशों के अनुसार यज्ञात्मक जीवन की अनुभूति होती है।
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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - हे देव=हे पूज्य इन्द्र ! त्वमस्य। अश्वस्य=संसारस्य पशोश्च। पौरः=पूरकः। पुनः। गवामिन्द्रियाणां पशूनां वा। पुरुकृत्=बहुकृदसि। त्वम्। उत्सः=प्रस्रवणम्। उत्सवे। वा। त्वं हिरण्ययः=हिरण्यप्रभृतिधनानां कर्तासि। हे इन्द्र ! त्वे=त्वयि वर्तमानं दानम्। नकिः=नहि कोऽपि। परिमर्धिषत्=निवारयितुं शक्नोति। यतोऽहम्। यद्+यद्। यामि=याचे। तत् तत्। आभर=आहर ॥६॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra, lord of infinite holy acts of kindness, commanding irresistible adour and passion, whether one is a sagely scholar or a simple unlettered person, whoever offers words of praise and prayer to you is blest with divine joy by your grace, O lord of the name “I AM”.