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इन्द्र॒: स्पळु॒त वृ॑त्र॒हा प॑र॒स्पा नो॒ वरे॑ण्यः । स नो॑ रक्षिषच्चर॒मं स म॑ध्य॒मं स प॒श्चात्पा॑तु नः पु॒रः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indraḥ spaḻ uta vṛtrahā paraspā no vareṇyaḥ | sa no rakṣiṣac caramaṁ sa madhyamaṁ sa paścāt pātu naḥ puraḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्रः॑ । स्पट् । उ॒त । वृ॒त्र॒ऽहा । प॒रः॒ऽपाः । नः॒ । वरे॑ण्यः । सः । नः॒ । र॒क्षि॒ष॒त् । च॒र॒मम् । सः । म॒ध्य॒मम् । सः । प॒श्चात् । पा॒तु॒ । नः॒ । पु॒रः ॥ ८.६१.१५

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:61» मन्त्र:15 | अष्टक:6» अध्याय:4» वर्ग:38» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:7» मन्त्र:15


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शिव शंकर शर्मा

सर्वत्र ईश्वर ही प्रार्थनीय है, यह इस ऋचा से दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यों ! हम उपासकगण (पृतनासु) भयङ्कर संग्रामों में भी (उग्रम्) न्यायी होने के कारण लोक में उग्रत्वेन प्रसिद्ध परमात्मा की ही (युयुज्म) प्रार्थना करते हैं। उसी के न्याय पर विजय की आशा रखते हैं, जो परमात्मा (सासहिम्) सदा अन्यायी को दबाता है, (ऋणकातिम्) जो ऋण के समान अवश्य फल दे रहा है, (अदाभ्यम्) जिसको सम्पूर्ण संसार भी परास्त नहीं कर सकता, (सनिता) जो अवश्य कर्मानुसार सुख दुःख का विभाग करनेवाला है (रथीतमः) संसाररूप महारथ का वही एक स्वामी है पुनः वह (भृमंचित्) मनुष्यों को पोषण करनेवाले को भी (वेद) जानता है अर्थात् कौन पुरुष उपकारी है, उसको भी जानता है और (वाजिनम्) धर्म और सुख के लिये कौन युद्ध कर रहा है, उसको भी जानता है। (यम्+इत्+ऊ) जिसके निकट (नशत्) वह पहुँचता है, वही विजयी होता है ॥१२॥
भावार्थभाषाः - सुख या दुःख सब काल में उसी के आश्रय में रहना चाहिये ॥१२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

स्पट् उत वृत्रहा

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (स्पट्) = सर्वद्रष्टा व सर्वज्ञ हैं, (उत) = और (वृत्रहा) = वासना को विनष्ट करनेवाले हैं। (परस्परः) = [परस्मात् पाति] शत्रुओं से रक्षित करनेवाले हैं और (न:) = हमारे लिए (वरेण्यः) = वरणीय हैं। [२] (सः) = वे प्रभु (नः) = हमारे (चरमं) = जीवन के अन्तिम भाग को (रक्षिषत्) = रक्षित करें, (सः मध्यमं) = वे प्रभु जीवन के मध्यभाग [यौवन] को भी रक्षित करें। बाल्य को तो प्रभु माता-पिता व आचार्यों द्वारा रक्षित करते ही हैं। वे जीवन के यौवन व वार्धक्य के भी रक्षक हों । (सः) = वे प्रभु (पश्चात्) = पीछे से (पातु) = रक्षित करें तथा (नः) = हमें (पुरः) = सामने से [पातु = ] रक्षित करें।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- वे सर्वद्रष्टा प्रभु हमारी वासनाओं को विनष्ट करते हुए हमें शत्रुओं से रक्षित करें। वे आगे-पीछे सब ओर से हमारा रक्षण करें।
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शिव शंकर शर्मा

सर्वत्रेश्वर एव प्रार्थ्य इत्यनया दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - वयमुपासकाः। पृतनासु=संग्रामे। उग्रं= न्यायपरतयोग्रत्वेन प्रसिद्धमीश्वरमेव। युयुज्म= योजयामः=प्रार्थयाम इत्यर्थः। कीदृशम्। सासहिम्=अन्यायिनामभिभवितारम्। पुनः। ऋणकातिम्= ऋणमिवावश्यफलप्रदम्। पुनः। अदाभ्यम्=अदमनीयम्-अविनश्वरम्। पुनः। यश्चेश्वरः। सनिता=सुखप्रदाता। रथीतमः=संसाररूपमहारथस्य स्वामी। ईदृशः सः। भृमंचित् भर्तारं=जनसुखकरमुपासकम्। वेद=वेत्ति। पुनः। वाजिनं=संग्रामकारिणमुपकाराय वेत्ति। यमिद्+ऊ= यमेव खलु। नशत्=प्राप्नोति ॥१२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra is all cognizant, destroyer of evil and universal protector, and him alone we ought to choose for worship and prayer. May he protect us all, the highest, the middling and the lowest, and may he protect us at the far back and the farthest coming up front.