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त्वं हि रा॑धस्पते॒ राध॑सो म॒हः क्षय॒स्यासि॑ विध॒तः । तं त्वा॑ व॒यं म॑घवन्निन्द्र गिर्वणः सु॒ताव॑न्तो हवामहे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ hi rādhaspate rādhaso mahaḥ kṣayasyāsi vidhataḥ | taṁ tvā vayam maghavann indra girvaṇaḥ sutāvanto havāmahe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम् । हि । रा॒धः॒ऽप॒ते॒ । राध॑सः । म॒हः । क्षय॑स्य । असि॑ । वि॒ध॒तः । तम् । त्वा॒ । व॒यम् । म॒घ॒ऽव॒न् । इ॒न्द्र॒ । गि॒र्व॒णः॒ । सु॒तऽव॑न्तः । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥ ८.६१.१४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:61» मन्त्र:14 | अष्टक:6» अध्याय:4» वर्ग:38» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:7» मन्त्र:14


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शिव शंकर शर्मा

ईश्वर को निज सखा बनाना चाहिये, यह शिक्षा इससे देते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हम उपासक (पापासः) पापिष्ठ होकर उस इन्द्र की (न+मनामहे) स्तुति प्रार्थना नहीं करते, किन्तु पापों को त्याग सुकर्म करते हुए ही उसको पूजते हैं। इसी प्रकार (अरायासः) धन पाकर अदानी होकर (न) उसकी प्रार्थना नहीं करते, किन्तु दानी होकर ही और (न+जह्वयः) अग्निहोत्रादि कर्मरहित होकर भी उसकी प्रार्थना नहीं करते, किन्तु शुभकर्मों से युक्त होकर ही (यद्+इत्) जिसी कारण (नु) इस समय (वृषणम्) निखिल कर्मों की वर्षा करनेवाले (इन्द्रम्) परमात्मा को (सुते+सचा) शुभकर्म में सब कोई मिलकर (सखायम्) अपना मित्र (कृणवामहै) बनाते हैं ॥११॥
भावार्थभाषाः - पूर्व गत अनेक मन्त्रों में दर्शाया गया है कि वह इन्द्रवाच्य परमदेव परमन्यायी शुद्ध विशुद्ध पापरहित और सदा पापियों को दण्ड देनेवाला है, अतः इस मन्त्र द्वारा उपदेश दिया जाता है कि हे मनुष्यों ! यदि तुम परमात्मा को निज मित्र और इष्टदेव बनाना चाहते हो, तो निखिल पापों कुटिलताओं और दुर्व्यसनों को छोड़ अग्निहोत्रादि शुभकर्मों को करते हुए और धन विद्यादि गुण पाकर उनको सत्पात्रों में वितीर्ण करते हुए एक ही ईश्वर में प्रेमभक्ति और श्रद्धा करो ॥११॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

राधस् तथा महान् क्षय

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (राधस्पते) = ऐश्वर्य के स्वामिन् प्रभो ! (त्वं) = आप (हि) = निश्चय से (विधतः) = परिचर्या [उपासना] करनेवाले उपासक के (राधसः) = ऐश्वर्य के तथा (महः क्षयस्य) = महान् निवासस्थान के [क्षि निवासगत्योः] (असि) = [वर्धयिता] बढ़ानेवाले हैं। [२] हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन्, (गिर्वणः) = ज्ञान की वाणियों से सेवनीय (इन्द्र) = शत्रु - विद्रावक प्रभो ! (सुतावन्तः) = सोम का सम्पादन करनेवाले (वयं) = हम (तं त्वा) = उन आपको (हवामहे) = पुकारते हैं। आपकी हम उपासना करते हैं। आपकी उपासना ही हमारे अभ्युदय का कारण बनती है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-सोम का रक्षण करते हुए हम प्रभु की उपासना करते हैं। उपासित प्रभु हमारे लिए ऐश्वर्य के देनेवाले होते हैं।
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शिव शंकर शर्मा

ईश्वरः सखा कर्त्तव्य इति शिक्षते।

पदार्थान्वयभाषाः - वयम्। पापासः=पापाः=सत्यादिव्रतरहिता भूत्वा। न तमिन्द्रम्। मनामहे=प्रार्थयामः। किन्तु निष्पापाः सन्तो वयं तं स्तुमः। अरायासः=अदातारः। धनं प्राप्य अरातयो भूत्वा न तं मनामहे किन्तु दातार एव सन्तः। तथा। न जह्वयः=अनग्नयः=अग्निहोत्रादिकर्मरहिताः सन्तः। न तं मनामहे। किन्तु अग्निहोत्रिणो भूत्वैवेत्यर्थः। यद्=यस्मात् कारणात्। इत्=एव। वृषणं=निखिलकामानां वर्षितारम्। इन्द्रमीशम्। नु=इदानीम्। सचा=सहैव मिलित्वा। सुते=शुभकर्मणि। सखायम्=मित्रम्। कृणवामहै=कुर्मः। इन्द्रः परमन्यायी देवोऽस्ति। स पापात् न कदापि क्षमते। अतः यः कश्चिदिन्द्रं स्वेष्टदेवं कर्तुमीहते। स प्रथमं सर्वाणि पापानि मनसापि न चिन्तयेदित्यर्थः ॥११॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra, lord of the world’s wealth, munificence and achievement, you alone are the protector, and promoter of the wealth, grandeur, home and honour of the supplicant worshipper. O lord of all power and honour, adored and worshipped in hymns of glory, we invoke, invite and exalt you for the munificence and grandeur of life you grant, protect and advance.