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उ॒ग्रं यु॑युज्म॒ पृत॑नासु सास॒हिमृ॒णका॑ति॒मदा॑भ्यम् । वेदा॑ भृ॒मं चि॒त्सनि॑ता र॒थीत॑मो वा॒जिनं॒ यमिदू॒ नश॑त् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ugraṁ yuyujma pṛtanāsu sāsahim ṛṇakātim adābhyam | vedā bhṛmaṁ cit sanitā rathītamo vājinaṁ yam id ū naśat ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒ग्रम् । यु॒यु॒ज्म॒ । पृत॑नासु । स॒स॒हिम् । ऋ॒णऽका॑तिम् । अदा॑भ्यम् । वेद॑ । भृ॒मम् । चि॒त् । सनि॑ता । र॒थिऽत॑मः । वा॒जिन॑म् । यम् । इत् । ऊँ॒ इति॑ । नश॑त् ॥ ८.६१.१२

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:61» मन्त्र:12 | अष्टक:6» अध्याय:4» वर्ग:38» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:7» मन्त्र:12


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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! (शतक्रतो) हे अनन्त-२ कर्मा (प्राचामन्यो) हे अप्रतिहतक्रोध (अहंसन) हे अहं नाम जगदीश ! (अविप्रः+वा) अविप्र या (विप्रः+वा) विप्र (यद्) जब-२ (ते+वचः) तेरी स्तुति प्रार्थना और उपासना (अविधत्) करता है, तब-२ (त्वाया) तेरी कृपा से (सः) वह स्तुतिकर्त्ता (प्र+ममन्दत्) जगत् में सब सुख पाकर आनन्द करता है। धन्य तू है। तेरी ही स्तुति मैं भी करूँ ॥९॥
भावार्थभाषाः - अहंसन−“अहम्” यह नाम परमात्मा का इसलिये है कि वही एक मुख्य है, दूसरा उसके सदृश नहीं। उसकी स्तुति प्रार्थना ब्राह्मण से लेकर महा मूर्ख तक अपनी-२ भाषा द्वारा करे। जो मन, प्रेम और श्रद्धा से स्तुति करेगा, वह अवश्य सुखी होगा ॥९॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

प्रभुस्तवनरूप दुर्ग

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हम (उग्रं) = उस तेजस्वी प्रभु को (युयुज्म) = योग द्वारा प्राप्त करें, जो प्रभु (पृतनासु सासहिम्) = संग्रामों में शत्रुओं का पराभव करनेवाले हैं, (ॠणकातिं) = दुर्गभूमिरूप है स्तुति जिनकी अर्थात् जिनकी स्तुति एक किले के समान शत्रुओं के आक्रमण से हमारा रक्षण करती है(अदाभ्यम्) = जो हिंसित होनेवाले नहीं। [२] जैसे (रथीतमः) = उत्तम सारथि (भृमं चित्) = भ्रमणशील अश्व को ही वेद प्राप्त करता है, इसी प्रकार वह सनिता सब कुछ देनेवाले प्रभु (यम् इत् उ) = जिसको ही (वाजिनं) = शक्तिशाली [वेद] जानता है, उसी को (नशत्) = प्राप्त होता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु का स्तवन स्तोता के लिए एक दुर्ग के समान होता है। यह स्तवन शत्रुओं के आक्रमण से उसका रक्षण करता है। प्रभु सबल को ही प्राप्त होते हैं।
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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! हे शतक्रतो=अनन्तकर्मन् ! हे प्राचामन्यो=प्राचीनक्रोध-अप्रतिहतक्रोध ! हे अहंसन= अहंनामन् ! अविप्रो वा=स्तुतिकरणे अकुशलो वा यद्वा मूर्खो वा। विप्रो वा=मेधावी जनो वा। ते=तव। यद्=यदा-२। वचः=स्तुतिरूपं वचनम्। अविधत्=करोति। तदा-२ सः। त्वाया=तव साहाय्येन तवानुग्रहेण सर्वं प्राप्य। प्र=प्रकर्षेण। ममन्दत्=मोदते आनन्दति ॥९॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - The blazing vibrant lord of existence, we join in the battles of life from strife upto communion, the power and presence most bold and courageous, indomitable, to whom we owe the debt of allegiance. Whoever approaches him thus as the ever moving spirit at the closest as a friend, munificent giver, sole controller of the chariot of life and the universe, the ultimate warrior and conqueror, realises him, joins him, becomes identified with him as the self itself.