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न पा॒पासो॑ मनामहे॒ नारा॑यासो॒ न जळ्ह॑वः । यदिन्न्विन्द्रं॒ वृष॑णं॒ सचा॑ सु॒ते सखा॑यं कृ॒णवा॑महै ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

na pāpāso manāmahe nārāyāso na jaḻhavaḥ | yad in nv indraṁ vṛṣaṇaṁ sacā sute sakhāyaṁ kṛṇavāmahai ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न । पा॒पासः॑ । म॒ना॒म॒हे॒ । न । अरा॑यासः । न । जल्ह॑वः । यत् । इत् । नु । इन्द्र॑म् । वृष॑णम् । सचा॑ । सु॒ते । सखा॑यम् । कृ॒णवा॑महै ॥ ८.६१.११

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:61» मन्त्र:11 | अष्टक:6» अध्याय:4» वर्ग:38» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:7» मन्त्र:11


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शिव शंकर शर्मा

फिर भी दान की प्रार्थना करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! (त्वम्) तू (दानाय) जगत् को दान देने के लिये (पुरु) अनेक (सहस्राणि) सहस्र (यूथा) पशुओं के झुण्ड (मंहसे) रखता है (च) पुनः (शतानि) अनन्त-अनन्त सहस्र पशुयूथ तू रखता है। हे मनुष्यों ! (विप्रवचसः) विशेषरूप से प्रार्थना करते हुए और उत्तमोत्तम वचनों को धारण करनेवाले हम उपासक (पुरन्दरम्) दुष्टों के नगरों को विदीर्ण करनेवाले परमात्मा का ही (आ+चकृम) आश्रय लेते हैं। (अवसे) रक्षा और सहायता के लिये (इन्द्रम्+गायन्तः) परमात्मा का ही गान करते हुए हम उसी का आश्रय लेते हैं ॥८॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यों ! ईश्वर के निकट सहस्र-२ अनन्त-२ पदार्थ हैं। वह परम कृपालु है, अतः संसारिक द्रव्य के लिये भी उसी की सेवा करो। विद्वान् लोग उसी की पूजा करते हैं ॥८॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'निष्पाप उदार ज्ञानी' उपासक

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (पापासः) = पापवृत्तिवाले होकर हम (न मनामहे) = प्रभु का उपासन नहीं करते। (अरायासः न) = अपानशील बनकर भी हम प्रभु का स्तवन नहीं करते। (न) = न ही (जल्हवः) = मूर्ख बनकर हम प्रभु का भजन करते हैं। [२] निष्पाप, उदार [दानशील] व ज्ञानी बनकर (यद्) = जब (इत् नु) = निश्चय से उस (वृषणं) = सुखवर्षक (इन्द्रं) = परमेश्वर्यशाली प्रभु को उपासित करते हैं तो (सुते) = इस उत्पन्न जगत् में उस इन्द्र को (सचा) = सदा साथ होनेवाला (सखायं) = मित्र (कृणवामहै) = करते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- निष्पाप, दानशील व ज्ञानी बनकर हम प्रभु का उपासन करते हैं और प्रभु को अपना मित्र बना पाते हैं।
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शिव शंकर शर्मा

पुनरपि दानप्रार्थना।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! त्वम्। दानाय=जगते दातुम्। पुरु=पुरूणि। सहस्राणि। पशूनां यूथा=यूथानि। मंहसे=रक्षसि। च पुनः। न केवलं तव परिमितं दानमस्ति किन्तु शतानि=अनन्तानि यूथानि दानाय रक्षसि। हे मनुष्याः। विप्रवचसः=विशेषप्रार्थनावन्तो विविधप्रकृष्टवचनाश्च वयम्। अवसे=रक्षणाय अनुग्रहाय च। पुरन्दरं=दुष्टानां पुरोविदारकमीशमेव। आचकृम=आश्रयामः। तमेवेन्द्रं गायन्तस्तमेवाश्रयामः ॥८॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - We are neither sinners nor uncharitable nor non- yajakas as we honour and adore Indra, generous lord of showers of grace, and win his favour as a friend in our holy acts of creation and yajna.