पदार्थान्वयभाषाः - [१] (इव) = जैसे (सिन्धवः) = नदियाँ (समुद्रम्) = समुद्र का वर्धन करती हैं, इसी प्रकार (उक्थानि) = स्तोत्र हमारे हृदयों में (इन्द्रम्) = प्रभु को (वावृधुः) = बढ़ाते हैं। जितना-जितना हम प्रभु का स्तवन करते हैं, उतना उतना प्रभु का भाव हमारे में वृद्धि को प्राप्त होता है। [२] उस प्रभु को ये स्तोत्र बढ़ाते हैं, जो (अनुत्तमन्युम्) = [अनुत्त- अप्रेरित] अप्रेरित ज्ञानवाले हैं, स्वाभाविक ज्ञानवाले हैं, किसी और से जो ज्ञान को नहीं प्राप्त करते तथा (अजरम्) = कभी जीर्ण होनेवाले नहीं। प्रभु की शक्ति कभी जीर्ण नहीं होती। इस प्रकार प्रभु को स्मरण करते हुए हम भी ज्ञान व शक्ति को प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु का स्तवन हमारे में प्रभु के भाव को बढ़ाता है, प्रभु ज्ञानस्वरूप हैं, अजीर्ण शक्तिवाले हैं। हम भी इस रूप में प्रभु का स्मरण करते हुए 'ज्ञानी व सशक्त' बनने के लिये यत्नशील होते हैं।