एह वां॑ प्रुषि॒तप्स॑वो॒ वयो॑ वहन्तु प॒र्णिन॑: । अच्छा॑ स्वध्व॒रं जन॑म् ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
eha vām pruṣitapsavo vayo vahantu parṇinaḥ | acchā svadhvaraṁ janam ||
पद पाठ
आ । इ॒ह । वा॒म् । प्रु॒षि॒तऽप्स॑वः । वयः॑ । व॒ह॒न्तु॒ । प॒र्णिनः॑ । अच्छ॑ । सु॒ऽअ॒ध्व॒रम् । जन॑म् ॥ ८.५.३३
ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:5» मन्त्र:33
| अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:7» मन्त्र:3
| मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:33
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शिव शंकर शर्मा
पुनः उसी विषय को कहते हैं।
पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् तथा कर्मचारिगण ! (प्रुषितप्सवः) अच्छे रूपवाले (पर्णिनः) पक्षी जैसे शीघ्रगामी वा आकाश में भी गमनकारी (वयः) घोड़े (वाम्) आप दोनों को (इह) यहाँ (स्वध्वरम्) हिंसारहित शोभनकर्मकारी (जनम्) जन के (अच्छ) सम्मुख (आ+वहन्तु) ले आवें ॥३३॥
भावार्थभाषाः - प्रजाओं में विचरण करता हुआ राजा महादरिद्र प्रजा से भी निरामय आदि कुशल की जिज्ञासा करे ॥३३॥
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (प्रुषितप्सवः) स्निग्ध वर्णवाले (पर्णिनः) पक्षी के समान गतिवाले (वयः) अश्व (स्वध्वरम्, जनम्, अच्छ) शोभन हिंसारहित यज्ञवाले मनुष्य के अभिमुख (इह) यहाँ (वाम्) आपको (आवहन्तु) लावें ॥३३॥
भावार्थभाषाः - हे तेजस्वी वर्णवाले, ज्ञानयोगिन् तथा कर्मयोगिन् ! आप कृपा करके शीघ्रगामी अश्वों द्वारा हमारे हिंसारहित यज्ञ को शीघ्र ही प्राप्त हों और हमारी इस याचना को स्वीकार करें ॥३३॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार
'प्रुषितप्सवः-पर्णिनः' वयः
पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे प्राणापानो! (इह) = यहाँ (वाम्) = आप दोनों को (वयः) = इन्द्रियरूप अश्व (स्वध्वरम्) = हिंसारहित यज्ञशील (जनम्) = मनुष्य के अच्छा ओर (आ वहन्तु) = प्राप्त कराये। अर्थात् हम सदा प्राणसाधना में प्रवृत्त हों। [२] वे इन्द्रियाश्व हमें प्राणसाधना में प्रवृत्त करें, जो (प्रुषितप्सवः) = शक्ति- सिक्त रूपवाले हैं अर्थात् तेजस्विता से चमकते हुए रूपवाले हैं। तथा (पर्णिन:) = [पर्ण-पू पालनपूरणयोः] जो इन्द्रियाश्व सब न्यूनताओं से रहित होकर अपना शक्ति से पूरण करनेवाले हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम प्राणसाधना के द्वारा इन्द्रियों को तेजो दीप्त तथा शक्ति से पूर्ण बनायें।
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शिव शंकर शर्मा
पुनस्तमर्थमाह।
पदार्थान्वयभाषाः - हे अश्विनौ ! प्रुषितप्सवः=स्निग्धरूपाः। प्रुषिः स्नेहनकर्मा। पर्णिनः=शीघ्रगामिनः। यद्वा। पर्णिनः पक्षिण इव शीघ्रगामिनः। अत्र लुप्तोपमा। वयः=गन्तारोऽश्वाः। वाम्=युवाम्। इह=प्रजासमीपे शुभकर्मणि वा। स्वध्वरम्=हिंसारहितशोभनकर्मकारिणं जनं प्रति। आवहन्तु=आनयन्तु ॥३३॥
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (प्रुषितप्सवः) स्निग्धरूपाः (पर्णिनः) उत्पतनशीलाः (वयः) अश्वाः (स्वध्वरम्, जनम्, अच्छ) शोभनयज्ञवन्तं जनमभि (इह) अत्र (वां) युवाम् (आवहन्तु) आगमयन्तु ॥३३॥
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डॉ. तुलसी राम
पदार्थान्वयभाषाः - May carriers consuming combustible fuel for energy transport you here on flying wings and you join the holy man at his yajna of love and non-violence.
