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दू॒रादि॒हेव॒ यत्स॒त्य॑रु॒णप्सु॒रशि॑श्वितत् । वि भा॒नुं वि॒श्वधा॑तनत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

dūrād iheva yat saty aruṇapsur aśiśvitat | vi bhānuṁ viśvadhātanat ||

पद पाठ

दू॒रात् । इ॒हऽइ॑व । यत् । स॒ती । अ॒रु॒णऽप्शुः । अशि॑श्वितत् । वि । भा॒नुम् । वि॒श्वधा॑ । अ॒त॒न॒त् ॥ ८.५.१

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:5» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:1» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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शिव शंकर शर्मा

प्रभात वेला में सबको जागना उचित ही है। विशेषकर जो प्रजारक्षा में नियुक्त हैं, उन्हें अवश्य ही उस समय जाग इधर-उधर जा के प्रजाओं का कल्याण जिज्ञास्य है, अतः यहाँ प्रथम प्रभात का वर्णन दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - यद्यपि सम्प्रति उषा=प्रातर्वेला (दूरात्) दूर प्रदेश में ही है, तथापि (इह+इव) मानो यहाँ ही (सती) विद्यमान है, ऐसी प्रतीत होती है। सो यह उषा (यद्) जब (अरुणप्सुः) दीप्यमान रक्तवर्ण ही रहती है, तब भी (अशिश्वितत्) सर्व वस्तु को मानो श्वेत कर देती है और थोड़ी ही देर में (भानुम्) प्रकाश को (विश्वधा) सर्वत्र चारों तरफ (वि+अतनत्) फैला देती है ॥१॥
भावार्थभाषाः - प्रभात में उठकर ईश्वरविभूति देखता हुआ जीवों के कल्याणों की चिन्ता करे ॥१॥
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आर्यमुनि

अब ज्ञानयोगी और कर्मयोगी की शक्ति का वर्णन करते हुए प्रथम प्रातःकाल की शोभा कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (दूरात्) वास्तव में दूर परन्तु (इहेव, सती) समीपस्थ के सदृश ज्ञात होती हुई (अरुणप्सुः) अरुण रङ्गवाली यह उषा (यत्) जब (अशिश्वितत्) सारे संसार को अरुण कर देती है, तब उसी क्षण (भानुम्) सूर्य की किरणों को (व्यतनत्) फैला देती है ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उषाकाल का वर्णन किया गया है कि जब सम्पूर्ण संसार को अरुण=तेजस्वी बनानेवाले उषाकाल का आगमन होता है, तब सब प्राणी निद्रादेवी की गोद से उद्बुद्ध होकर परमपिता परमात्मा की महिमा का अनुभव करते हुए उसी के ध्यान में निमग्न होते हैं। अधिक क्या, इस उषाकाल का महत्त्व ऋषि, महर्षि, शास्त्रकार तथा सम्पूर्ण महात्मागण बड़े गौरव से वर्णन करते चले आये हैं कि जो पुरुष इस उषाकाल में उठकर परमात्मपरायण होते हैं उनको परमात्मा सब प्रकार के ऐश्वर्य्य प्रदान करते हैं, जैसा कि ऋग्० ७।६।६ में वर्णन किया है किः− प्रतित्वा स्तोमैरीडते वसिष्ठा उषर्बुधः सुभगे तुष्टुवांसः। गवां नेत्री वाजपत्नी न उच्छोषः सुजाते प्रथमा जरस्व॥हे सुभगे उषा ! स्तुति करनेवाले विद्वान् पुरुष उषाकाल में जागकर स्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति करते हैं। गौ तथा अन्नादि धनों को देनेवाली, प्रथम प्राप्त होनेवाली आप प्रकाशित होकर सुख से लब्ध हों अर्थात् जो पुरुष इस उषाकाल में जागते हैं, वे संयमी होते हैं और यह उषाकाल अन्नादि ऐश्वर्य्य का स्वामी है, या यों कहो कि उषाकाल के सेवी को अन्नादि विविध ऐश्वर्य्य प्राप्त होते और इसी के सेवन से पुरुष की दीर्घायु होती है।इसी काल का नाम “ब्राह्ममुहूर्त्त” है, जिसके विषय में मनु भगवान् मनु० ४।९२ में इस प्रकार वर्णन करते हैं किः− ब्राह्मे मुहूर्त्ते बुध्येत धर्मार्थौ चानुचिन्तयेत्। कायक्लेशांश्च तन्मूलान् वेदतत्त्वार्थमेव च ॥पुरुषों को उचित है कि वह ब्राह्ममुहूर्त्त में उठकर धर्म और अर्थ का चिन्तन करें अर्थात् उषाकाल में जागकर सन्ध्या अग्निहोत्रादि धर्मकार्यों में प्रवृत्त हों और उनसे निवृत्त होकर धर्मपूर्वक धन कमाने का उपाय सोचें। शरीर को आरोग्य रखने के उपायों को भी विचारें अर्थात् उसी काल में नित्य व्यायामादि क्रिया करें, क्योंकि शरीर के नीरोग होने से ही पुरुष मनुष्यजन्म के फलचतुष्टय लाभ कर सकता है। उसके पश्चात् वेद के तत्त्व का विचार करें अर्थात् स्वाध्याय में प्रवृत्त हों, जिससे धर्माधर्म का भले प्रकार बोध प्राप्त कर सकें, इसलिये धर्माभिलाषी तथा ऐश्वर्य्याभिलाषी पुरुषों को उचित है कि वह नित्य उषाकाल में जागकर परमात्मा की उपासना में प्रवृत्त हों ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

उषा व युवति

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (दूरात्) = सुदूर प्रदेश में, प्राचीदिग्भाग में होती हुई यह उषा (यत्) = जब (इह एव सती) = यहाँ हमारे समीप ही होती हुई प्रतीत होती है, तो यह (अरुणप्सुः) = अव्यक्त लालिमा सम्पन्न रूपवाली उषा (अशिश्वितत्) = सारे आकाश को [सफेद] ही कर डालती है। (भानुम्) = अपने प्रकाश को (विश्वधा) = सब ओर (वि अतनत्) = विशेषरूप से फैलानेवाली होती है। [२] इसी प्रकार इस उषा के समान एक युवति (दूरात्) = बड़े दूर स्थित पितृगृह से (यत्) = जब (इह एव) = यहाँ पतिकुल में ही सती होती हुई (अरुणप्सुः) = स्वास्थ्य की लालिमा युक्त रूपवाली (अशिश्वितत्) = सारे घर को उज्वल करनेवाली होती है तो यह (भानुम्) = प्रकाश को (विश्वधा) = सब ओर अड़ोस-पड़ोस में (वि अत्यनत्) = विशेषरूप से फैलाती है। इसके आने से घर और घर का सारा क्षेत्र चमक उठता है ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- उषा आती है और किस प्रकार अन्धकार को दूर करके प्रकाश को फैलाती है। इसी प्रकार एक युवति को पतिकुल में आकर प्रकाश को फैलानेवाली बनना है।
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शिव शंकर शर्मा

प्रभातवेलायां सर्वैर्जागरितव्यम्। प्रजारक्षायां नियुक्तैस्तु नूनं तस्मिन् समये प्रबुध्येतस्ततो गत्वा प्रजाकल्याणं जिज्ञासितव्यमिति प्रथमं प्रभातं वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - यद्यप्युषाः सम्प्रति। दूराद्=दूरप्रदेश एव वर्तते। तथापि। इह+इव सती=इहैव=मम समीप एव विद्यमानास्तीति प्रतीयते। सा हि। अरुणप्सुः=आरोचमानरूपा रक्तवर्णा। यद्=यदा भवति। तदापि सर्वं वस्तु। अशिश्वितत्=श्वेतयति=शुक्लीकरोति। श्विता वर्णे। लुङि ण्यन्तस्य रूपम्। पुनः। किंञ्चित्कालानन्तरम्। भानुम्=प्रकाशम्। विश्वधा=सर्वत्र। वि+अतनत् व्यतनत्=वितनोति=विस्तारयति ॥१॥
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आर्यमुनि

अथ ज्ञानयोगिकर्मयोगिणोः शक्तिं वर्णयन् आदौ प्रातःकालशोभा वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - इयमुषाः (यत्) यदा (दूरात्) दूरस्था (इहेव, सती) इहैव विद्यमानेव (अरुणप्सुः) स्वयमरुणरूपा जगत्सर्वम् (अशिश्वितत्) अरुणं कृतवती तत्क्षणमेव पश्चात् (भानुम्) सूर्यकिरणान् (विश्वधा) सहस्रधा (व्यतनत्) आशु प्रसारितवती ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - The bright red dawn from far off, which yet appears so close, wraps the world in crimson glory and then spreads it over with the light of the sun.