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त्वं हि न॑स्त॒न्व॑: सोम गो॒पा गात्रे॑गात्रे निष॒सत्था॑ नृ॒चक्षा॑: । यत्ते॑ व॒यं प्र॑मि॒नाम॑ व्र॒तानि॒ स नो॑ मृळ सुष॒खा दे॑व॒ वस्य॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ hi nas tanvaḥ soma gopā gātre-gātre niṣasatthā nṛcakṣāḥ | yat te vayam pramināma vratāni sa no mṛḻa suṣakhā deva vasyaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम् । हि । नः॒ । त॒न्वः॑ । सो॒म॒ । गो॒पाः । गात्रे॑ऽगात्रे । नि॒ऽस॒सत्थ॑ । नृ॒ऽचक्षाः॑ । यत् । ते॒ । व॒यम् । प्र॒ऽमि॒नाम॑ । व्र॒तानि॑ । सः । नः॒ । मृ॒ळ॒ । सु॒ऽस॒खा । दे॒व॒ । वस्यः॑ ॥ ८.४८.९

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:48» मन्त्र:9 | अष्टक:6» अध्याय:4» वर्ग:12» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:6» मन्त्र:9


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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - हे सोम ! (मा) मुझको (मथितम्) दो लकड़ियों से मथ कर निकाले हुए (अग्निं+न) अग्नि के समान (संदिदीपः) संदीप्त कर जगत् में अग्नि के समान चमकीला और तेजस्वी बना। (प्रचक्षय) दिखला अर्थात् नयन में देखने की पूरी शक्ति दे और (नः) हमको (वस्यसः) अतिशय धनिक (कृणुहि) बना (अथ+हि) इस समय (ते+मदे) तेरे आनन्द में (अमन्ये) ईश्वरीय भाव का मनन करता हूँ या उसकी स्तुति करता हूँ। मैं (रेवान्+इव) धनसम्पन्न पुरुष के समान (अच्छ) अच्छे प्रकार (पुष्टिम्) पोषण और विश्राम (प्रचर) प्राप्त करूँ, या मुझको वह अन्न पुष्टिप्रद हो ॥६॥
भावार्थभाषाः - वैसा अन्न सेवन करे, जिससे वह अग्निवत् तेजस्वी भासित हो, नेत्र की शक्ति बढ़े और वह दिन-२ धनवान् ही होता जाए अर्थात् मद्यादि पान कर लम्पटता द्यूतादि कुकर्म में धनव्यय न करे। जब-२ अन्न प्राप्त हो, तब-२ ईश्वर को धन्यवाद दे और सदा अदीनभाव रहे। ये सब शिक्षाएँ इससे मिलती हैं ॥६॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'रक्षक' सोम

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (सोम) = वीर्य ! (त्वं) = तू (हि) = निश्चय से (नः) = हमारे (तन्वः) = शरीर का (गोपाः) = रक्षक है। (नृचक्षाः) = मनुष्यों का ध्यान करनेवाला होता हुआ तू (गात्रे गात्रे) = अंग-प्रत्यंग में (निषसत्था) = स्थित होता है। [२] (यत्) = यद्यपि (वयं) = हम कभी-कभी (ते व्रतानि) = तेरे व्रतों को (प्रमिनाम) = हिंसित कर बैठते हैं। तो भी (सः) = वह तू (नः) = हमारे लिए (मृड) = सुख को करनेवाला हो। हे (देव) = प्रकाशमय व रोगों को जीतने की कामनावाले सोम [विजिगीषा] ! तू (सुषखा) = हमारा उत्तम मित्र होता हुआ (वस्यः) = हमें उत्तम वसुओंवाला कर श्रेष्ठ बना।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-अंग-प्रत्यंग में व्याप्त होता हुआ सोम हमारा रक्षक है, यह हमें सुखी करता है, श्रेष्ठ बनाता है।
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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - हे सोम ! मा=माम्। मथितम्। अग्निं न=अग्निमिव। संदिदीपः=संदीपय। पुनः। प्रचक्षय=प्रदर्शय=नेत्रशक्तिं देहि। पुनः। नोऽस्मान्। वस्यसः=अतिशयेन वसुमतः। कृणुहि=कुरु। हे सोम ! अथाधुना हि। ते=तव। मदे=आनन्दे। आ मन्ये=ईश्वरीयभावस्य मननं करोमि। रेवान् इव। अहमपि। पुष्टिम्। अच्छ प्रचर=प्रचरेयम् ॥६॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O soma, you are the protector and promoter of our body and personality. Watcher and leading light of humanity, seep in and energise every part of our body. And if we default on your rules of discipline, even so, O noble friend, generous power superior, be good and gracious to us and help us to be happy.