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यच्च॒ गोषु॑ दु॒ष्ष्वप्न्यं॒ यच्चा॒स्मे दु॑हितर्दिवः । त्रि॒ताय॒ तद्वि॑भावर्या॒प्त्याय॒ परा॑ वहाने॒हसो॑ व ऊ॒तय॑: सु॒तयो॑ व ऊ॒तय॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yac ca goṣu duṣṣvapnyaṁ yac cāsme duhitar divaḥ | tritāya tad vibhāvary āptyāya parā vahānehaso va ūtayaḥ suūtayo va ūtayaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत् । च॒ । गोषु॑ । दुः॒ऽस्वप्न्य॑म् । यत् । च॒ । अ॒स्मे इति॑ । दु॒हि॒तः॒ । दि॒वः॒ । त्रि॒ताय॑ । तत् । वि॒भा॒ऽव॒रि॒ । आ॒प्त्याय॑ । परा॑ । व॒ह॒ । अ॒ने॒हसः॑ । वः॒ । ऊ॒तयः॑ । सु॒ऽऊ॒तयः॑ । वः॒ । ऊ॒तयः॑ ॥ ८.४७.१४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:47» मन्त्र:14 | अष्टक:6» अध्याय:4» वर्ग:9» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:6» मन्त्र:14


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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - (आदित्याः) हे सभाधिकारी जनो ! (अवख्यत+हि) नीचे हम लोगों को देखें। यहाँ दृष्टान्त देते हैं−(अधि+कूलात्+इव) जैसे नदी के तट से (स्पशः) पुरुष नीचे जल देखता है, (तद्वत्) पुनः (यथा) अश्वरक्षक (अर्वतः) घोड़ों को (सुतीर्थम्) अच्छे चलने योग्य मार्ग से ले चलते हैं, तद्वत् (नः) हमको (सुगम्) अच्छे मार्ग की ओर (अनु+नेषथ) ले चलो ॥११॥
भावार्थभाषाः - विद्वानों सभासदों तथा अन्य हितकारी पुरुषों को उचित है कि वे प्रजाओं को सुमार्ग में ले जाएँ ॥११॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

दुःष्वप्न्य दूरीकरण

पदार्थान्वयभाषाः - हे (दिवः दुहितः) = ज्ञान का प्रपूरण करनेवाली उषे ! (यत् च) = जो भी (गोषु) = इन्द्रियों के विषय में (दुःष्वप्न्यं) = अशुभ स्वप्न आता है, (च) = और (यत्) = जो (अस्मे) = हमारे विषय में अशुभ स्वप्न होता है, (तत्) = उसे हे (विभावरि) = प्रकाशमयी उषे ! (त्रिताय) = 'काम-क्रोध-लोभ' को तैरनेवाले (आप्त्याय) = प्रभुप्राप्ति में उत्तम मेरे लिए (परावह) = दूर करनेवाली हो। वस्तुत: हम उषाकाल में प्रबुद्ध ही हो जाएँ, ताकि इन अशुभ स्वप्नों का शिकार न हों। [२] (वः ऊतयः) = आपके रक्षण (अनेहसः) = निष्पाप हैं। (वः ऊतयः) = आपके रक्षण (सु ऊतयः) = उत्तम रक्षण हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम काम-क्रोध-लोभ को तैरनेवाले प्रभुप्राप्ति परायण बनकर अशुभ स्वप्नों से ऊपर उठें।
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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - हे आदित्याः=सभाधिष्ठातारः ! यूयम्। अस्मान्। अवख्यत=अवपश्यत। ऊर्ध्वस्थिता यूयम्। अधःस्थितानस्मान्। पश्यत। अत्र दृष्टान्तः=अधि=पूरणः। कूलादिव=तटादिव। स्पशः=स्पष्टाः=स्थिताः स्पशः। यथा कूलस्थः पुरुषो जलं पश्यति। तद्वत्। पुनः। यथा। अश्वरक्षकाः। अर्वतोऽश्वान्। सुतीर्थम्=शोभनावतारप्रदेशम्। नयन्ति। तद्वन्नोऽस्मान् सुगं सुपन्थानम्। अनु नेषथ=अनुनयथ ॥११॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O daughter of the light of heaven, holy dawn, noble intelligence, holy wisdom, whatever evil thought, dream or ambition there be in or in relation to our mind and senses or in relation to anything else of our life, O light of the dawn, take away far off from us for the good of the self and the world of threefold virtue of body, mind and soul. Sinless are your protections, holy your safeguards.