पदार्थान्वयभाषाः - [१] ' अश्नुते इति अश्व:, तेषु उत्तमः अश्व्यः' (अश्व्यस्य) = व्यापक तत्त्वों में सर्वोत्तम उस प्रभु के (अयुता) = सदा साथ रहनेवाले (षष्टिं सहस्त्रा) = 'आध्यात्मिक- आधिभौतिक व आधिदैविक' इन त्रिविध अश्वों के कारण बीस हज़ार होते हुए भी साठ हजार मन्त्ररूप वचनों को मैं (असनम्) = प्राप्त करूँ। इन मन्त्ररूप वचनों के द्वारा होनेवाले (उष्ट्राणां विंशतिं) [उष दाहे+त्र] = दोषदहन की २० क्रियाओं को (शता) = शतवर्षपर्यन्त प्राप्त करूँ। मेरे दसों प्राण व दसों इन्द्रियाँ बड़ी निर्दोष बनें। इन बीस के सब दोष ज्ञानाग्नि में दग्ध हो जाएँ। [२] इस प्रकार दोषदहन से दश (श्यावीनां) = [श्यैङ् गतौ] दस गतिशील इन्द्रियों को भी (शता) = शतवर्षपर्यन्त प्राप्त करूँ । इन्द्रियाँ निर्दोष बनें और सौ वर्ष तक ठीक कार्य करती रहें। इन इन्द्रियों के ठीक होने पर (त्र्यरुषीणाम्) = शरीर, मन व मस्तिष्क- तीनों को आरोचमान बनानेवाली अथवा 'ज्ञान-कर्म-उपासना' तीनों का प्रकाश करनेवाली (गवां) = वेदवाणीरूपी गौओं को (दश दश) = दस गुणा दस अर्थात् १०० वर्ष तक प्राप्त करूँ। ये वेदवाणीरूप गौएँ (सहस्त्रा) = मेरे लिए [स+हस्] आनन्दोल्लास को देनेवाली हों।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु के मन्त्ररूप वचनों को प्राप्त करके मैं प्राणों व इन्द्रियों को ज्ञानाग्नि में निर्दोष बना पाऊँ। मेरी ये निर्दोष इन्द्रियाँ खूब क्रियाशील हों, और ये ज्ञान, कर्म व उपासना का प्रकाश करनेवाली वेदवाणीरूप गौओं के दुग्ध का पान करें और आनन्द को सिद्ध करें।