देव व यज्ञिय पुरुषों में प्रभु का वास
पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अग्निः) = वह अग्रणी प्रभु (देवेषु) = देववृति के व्यक्तियों में संवसुः = सम्यक् वास को करता है। देववृत्तिवाले व्यक्ति वे हैं जो [दिव् विजिगीषा] काम, क्रोध, लोभ आदि को जीतने की प्रबल कामनावाले होते हैं। (सः) = वे प्रभु ही (यज्ञियासु विक्षु) = यज्ञशील प्रजाओं में (आसमन्तात्) = वास करते हैं। (सः) = वे प्रभु (मुदा) = आनन्द के साथ (काव्या) = कवि कर्मों को (पुरु) = खूब (पुष्यति) = देखते हैं। उन कर्मों का रक्षण करते हैं [Look after ] । उसी प्रकार रक्षण करते हैं, (इव) = जैसे (विश्वं) = सब प्राणियों को (भूम) = यह भूमि देखती है। भूमि माता के समान सब प्राणियों का धारण करती है, इसी प्रकार प्रभु सब कवि कर्मों का ध्यान करते हैं। प्रभु का उपासक कवि बनता है - क्रान्तदर्शी होता है। उपासना से उसकी बुद्धि सूक्ष्मग्राहिणी बनती है। यह बुद्धि सत्य को बड़े प्रिय ढंग से कहनेवाली बनती है। (२) (देवः) = ये प्रकाशमय प्रभु (देवेषु) = सब देवों में (यज्ञियः) = उपास्य होते हैं। प्रभु को गुरुओं का गुरु-महान् गुरु, देवों का देव महादेव कहते हैं। ये ईश्वरों के ईश्वर - परमेश्वर हैं। इनके उपासन से (समे) = सब (अन्यके) = शत्रु (नभन्ताम्) = नष्ट हो जाएँ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ:- प्रभु का निवास दिव्य वृत्तिवाले यज्ञशील पुरुषों में होता है। प्रभु हमारे जीवनों में ज्ञान की क्रियाओं के साथ आनन्द को जोड़नेवाले होते हैं। देव प्रभु का उपासन करते हैं और शत्रु को हरा कर पाते हैं।