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अ॒ग्निर्दे॒वेषु॒ संव॑सु॒: स वि॒क्षु य॒ज्ञिया॒स्वा । स मु॒दा काव्या॑ पु॒रु विश्वं॒ भूमे॑व पुष्यति दे॒वो दे॒वेषु॑ य॒ज्ञियो॒ नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agnir deveṣu saṁvasuḥ sa vikṣu yajñiyāsv ā | sa mudā kāvyā puru viśvam bhūmeva puṣyati devo deveṣu yajñiyo nabhantām anyake same ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्निः । दे॒वेषु॑ । सम्ऽव॑सुः । सः । वि॒क्षु । य॒ज्ञिया॑सु । आ । सः । मु॒दा । काव्या॑ । पु॒रु । विश्व॑म् । भूम॑ऽइव । पु॒ष्य॒ति॒ । दे॒वः । दे॒वेषु॑ । य॒ज्ञियः॑ । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥ ८.३९.७

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:39» मन्त्र:7 | अष्टक:6» अध्याय:3» वर्ग:23» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:5» मन्त्र:7


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शिव शंकर शर्मा

अग्नि वयः=अवस्था और अन्न देता है, यह दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) वह सर्वगत ईश (तत्+तत्) उस उस शक्ति, खाद्य और वयः क्रम को सर्वत्र (दधे) स्थापित करता है (यथा यथा+कृपण्यति) जो जो प्राणियों की स्थिति के लिये आवश्यक है और वह (ऊर्जाहुतिः) सम्पूर्ण बल और सामर्थ्य देनेवाला है। पुनः वह (वसूनाम्) पृथिव्यादि पदार्थों के मध्य अथवा धनों के मध्य (शम्+च) कल्याण और (योः+च) रोगादिनिवर्तक (मयः+दधे) सुख स्थापित करता है और (विश्वस्यै+देवहूत्यै) समस्त देवों के आवाहन के स्थान में केवल वही आहूत होता है अर्थात् सब देवों के मध्य नहीं पूज्य होता है ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! आवश्यकता के अनुसार वही सबमें शक्ति और सामर्थ्य दे रहा है, वही जीवों के अन्नों का भी प्रबन्ध कर रहा है, अतः वही पूज्यतम है ॥४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

देव व यज्ञिय पुरुषों में प्रभु का वास

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अग्निः) = वह अग्रणी प्रभु (देवेषु) = देववृति के व्यक्तियों में संवसुः = सम्यक् वास को करता है। देववृत्तिवाले व्यक्ति वे हैं जो [दिव् विजिगीषा] काम, क्रोध, लोभ आदि को जीतने की प्रबल कामनावाले होते हैं। (सः) = वे प्रभु ही (यज्ञियासु विक्षु) = यज्ञशील प्रजाओं में (आसमन्तात्) = वास करते हैं। (सः) = वे प्रभु (मुदा) = आनन्द के साथ (काव्या) = कवि कर्मों को (पुरु) = खूब (पुष्यति) = देखते हैं। उन कर्मों का रक्षण करते हैं [Look after ] । उसी प्रकार रक्षण करते हैं, (इव) = जैसे (विश्वं) = सब प्राणियों को (भूम) = यह भूमि देखती है। भूमि माता के समान सब प्राणियों का धारण करती है, इसी प्रकार प्रभु सब कवि कर्मों का ध्यान करते हैं। प्रभु का उपासक कवि बनता है - क्रान्तदर्शी होता है। उपासना से उसकी बुद्धि सूक्ष्मग्राहिणी बनती है। यह बुद्धि सत्य को बड़े प्रिय ढंग से कहनेवाली बनती है। (२) (देवः) = ये प्रकाशमय प्रभु (देवेषु) = सब देवों में (यज्ञियः) = उपास्य होते हैं। प्रभु को गुरुओं का गुरु-महान् गुरु, देवों का देव महादेव कहते हैं। ये ईश्वरों के ईश्वर - परमेश्वर हैं। इनके उपासन से (समे) = सब (अन्यके) = शत्रु (नभन्ताम्) = नष्ट हो जाएँ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ:- प्रभु का निवास दिव्य वृत्तिवाले यज्ञशील पुरुषों में होता है। प्रभु हमारे जीवनों में ज्ञान की क्रियाओं के साथ आनन्द को जोड़नेवाले होते हैं। देव प्रभु का उपासन करते हैं और शत्रु को हरा कर पाते हैं।
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शिव शंकर शर्मा

अग्निर्वयो ददातीति दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - अग्निः। तत्तद्वयः=अन्नं वयश्च। सर्वत्र दधे=स्थापयति। यथायथा=यद्यद्। कृपण्यति। प्राणिभिरिष्यते। पुनः। ऊर्जाहुतिः=बलप्रदः। वसूनाम्=धनानां मध्ये। शञ्च=मङ्गलञ्च। योश्च=रोगनिवर्तकञ्च। मयः=स्वसुखञ्च। दधे=धारयति। विश्वस्यै=सर्वस्यै। देवहूत्यै=देवाह्वानाय। स एवाऽऽहूयते। शेषं पूर्ववत् ॥४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Agni pervades the divinities of nature and humanity as vitality, energy, plenty and generosity. He resides in humanity specially among those who are dedicated to yajna and creativity. As the earth nurtures and sustains the entire world life on it, so Agni nurtures and sustains all living beings with joy and inspiration for celebration in song. He is indeed the chief adorable divinity among divinities. May all negetavities and adversities vanish.