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अ॒ग्निर्जा॒ता दे॒वाना॑म॒ग्निर्वे॑द॒ मर्ता॑नामपी॒च्य॑म् । अ॒ग्निः स द्र॑विणो॒दा अ॒ग्निर्द्वारा॒ व्यू॑र्णुते॒ स्वा॑हुतो॒ नवी॑यसा॒ नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agnir jātā devānām agnir veda martānām apīcyam | agniḥ sa draviṇodā agnir dvārā vy ūrṇute svāhuto navīyasā nabhantām anyake same ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्निः । जा॒ता । दे॒वाना॑म् । अ॒ग्निः । वे॒द॒ । मर्ता॑नाम् । अ॒पी॒च्य॑म् । अ॒ग्निः । सः । द्र॒वि॒णः॒ऽदाः । अ॒ग्निः । द्वारा॑ । वि । ऊ॒र्णु॒ते॒ । सुऽआ॑हुतः । नवी॑यसा । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥ ८.३९.६

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:39» मन्त्र:6 | अष्टक:6» अध्याय:3» वर्ग:23» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:5» मन्त्र:6


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शिव शंकर शर्मा

अब उसके गुणों का कीर्तन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे सर्वशक्तिमन् ! (तुभ्यम्) तेरी प्रीति के लिये (आसनि) विद्वान् मनुष्यों के मुख में (घृतम्+न) घृत के समान (मन्मानि) मननीय स्तोत्रों को (जुह्वे) होमता हूँ। (देवेषु) देवों में सुप्रसिद्ध (सः) वह तू (पूर्व्यः) पुरातन (शिवः) सुखकारी और (दूतः) दूत के समान है, अतः तेरी कृपा से (अन्यके+समे) अन्य सब ही दुष्ट मनुष्य (नभन्ताम्) विनष्ट हो जावें ॥३॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

अग्निः द्वारा व्यूर्णुते

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अग्निः) = वह अग्रणी प्रभु ही (देवानां जाता वेद) = सूर्य, चन्द्र, तारे आदि सब दिव्य पदार्थों के जन्म व विकास को जानता है व प्राप्त कराता है। प्रभु ही इन्हें उत्पन्न करते हैं और उस-उस शक्ति को प्राप्त कराते हैं। वे (अग्नि) = अग्रणी प्रभु ही (मर्तानाम्) = मनुष्यों के (अपीच्यम्) = अन्तर्हित रहस्यमय बातों को भी (वेद) = हृदयस्थरूपेण जाननेवाले हैं। [२] (सः) = वे (अग्निः) = सब प्रगतियों के साधक प्रभु ही (द्रविणोदा:) = सब धनों के देनेवाले हैं। (अग्निः) = वे अग्रणी प्रभु ही द्वारा (व्यूर्णुते) = सब इन्द्रियनद्वारों को आच्छादन रहित करते हैं। इन पर आए हुए मलावरणों को हटाते हैं। सो ये प्रभु हमारे द्वारा (नवीयसा) = अतिशयेन गति के कारणभूत [नव गतौ] स्तोत्रों से (स्वाहुतः) = सम्यक् अपत होते हैं। हम प्रभु का स्तवन करते हैं और प्रभु के प्रति अपना अर्पण करते हैं। प्रभु के गुणों को अपनाने की कोशिश करते हैं। हमारे (समे) = सब (अन्यके) = शत्रु (नभन्ताम्) = नष्ट हों ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ:- प्रभु ही सूर्य आदि देवों को विकास प्राप्त कराते हैं। हमारे हृदयों की बातों को जानते हैं। सब धनों को देते हैं, इन्द्रियद्वारों को मलावरणरहित करते हैं। तभी हम काम आदि शत्रुओं को नष्ट कर पाते हैं।
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शिव शंकर शर्मा

तदीयगुणकीर्तनम्।

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने=सर्वशक्ते ! घृतन्न=घृतमिव। तुभ्यम्=तव प्रीत्यर्थम्। अहम्। असनि=मनुष्याणं मुखे। मन्मानि=मननीयानि स्तोत्राणि। कम्=सुखेन। जुह्वे। देवेषु प्रसिद्धः। स त्वम्। ममैतत्कार्य्यम्। प्रचिकिद्धि=जानीहि। त्वं हि। पूर्व्यः=पुरातनोऽसि। शिवो दूतश्चासि। अतस्तव कृपया। अन्यके=अन्ये। समे=सर्वे। विवस्वतः=विवस्वतो मनुष्याः। नभन्ताम्=विनश्यन्तु ॥३॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Agni knows the origin of immortal divinities of nature. He knows the secrets and mysteries of the mortals. Agni is the treasure giver of universal wealth, power, honour and excellence. Invoked and served with latest researches into light and fire energy and its applications, Agni opens the doors of immense possibilities of wealth and power. May all negativities and adversities vanish.