पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! आप (सुन्वतः) = सोम का अभिषव करनेवाले, शरीर में सोम का सम्पादन करनेवाले, (वृक्तबर्हिषः) = जिसने हृदयक्षेत्र से पापों का वर्जन किया है [वृजी वर्जने] उस यज्ञशील पुरुष के (अविता असि) = रक्षक हैं। इस रक्षण के लिये (सोमं पिब) = सोम का पान करिये, इसके सोम को शरीर में सुरक्षित करिये। कम्-इस आनन्दप्रद सोम को (मदाय) = जीवन में उल्लास के लिये पीजिये, शरीर में ही इसे लीन करिये [Imbibe] [२] हे (शतक्रतो) = अनन्त प्रज्ञान व शक्तिवाले प्रभो ! उस सोम का आप पान करिये (यं भागम्) = जिस भजनीय सोम को (ते) = आपकी प्राप्ति के लिये (अधारयन् =) धारण करते हैं। इस सोम के रक्षण के द्वारा ही तो हम तीव्र बुद्धि बनकर प्रभु का दर्शन कर पाते हैं। [३] हे प्रभो ! आप इस सोमरक्षण के द्वारा इन यज्ञशील पुरुषों के जीवन में (विश्वाः पृतनाः) = सब शत्रु सेनाओं का तथा (उरुज्रयः) = उनके महान् वेग का (सं सेहानः) = सम्यक् पराभव करते हैं। आप (अप्सुजित्) = सब कर्मों में हमें विजय प्राप्त कराते हैं। (मरुत्वान्) = प्रशस्त वायुवोंवाले हैं, शरीर में प्राणों के रूप से इन उत्तम वायुवों को प्राप्त कराते हैं और सत्पते सत्, अर्थात् उत्तम कर्मों के रक्षक हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- सोमरक्षण द्वारा प्रभु ही संयमी पवित्र हृदय पुरुष का रक्षण करते हैं। संयत सोम ही प्रभु-दर्शन का कारण बनता है और रोग व वासनारूप शत्रुओं का पराभव करनेवाला होता है।