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पन्य॒ आ द॑र्दिरच्छ॒ता स॒हस्रा॑ वा॒ज्यवृ॑तः । इन्द्रो॒ यो यज्व॑नो वृ॒धः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

panya ā dardirac chatā sahasrā vājy avṛtaḥ | indro yo yajvano vṛdhaḥ ||

पद पाठ

पन्यः॑ । आ । द॒र्दि॒र॒त् । श॒ता । स॒हस्रा॑ । वा॒जी । अवृ॑तः । इन्द्रः॑ । यः । यज्व॑नः । वृ॒धः ॥ ८.३२.१८

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:32» मन्त्र:18 | अष्टक:6» अध्याय:3» वर्ग:4» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:5» मन्त्र:18


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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

पन्यः-यज्वनो वृधः

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (यः) = जो (वाजी) = शक्तिशाली प्रभु (शता सहस्त्रा) = सैंकड़ों व हजारों शत्रुओं को (आदर्दिरत्) = विदीर्ण करते हैं, वे प्रभु ही (पन्यः) = स्तुति के योग्य हैं। यह प्रभु-स्तवन ही हमारे वासनारूप शत्रुओं का विनाश करता है। [२] ये प्रभु (अवृतः) = शत्रुओं से कभी घेरे नहीं जाते। (इन्द्रः) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले हैं और (यज्वनः वृधः) = यज्ञशील पुरुषों के बढ़ानेवाले हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करें व यज्ञशील बनें। प्रभु हमारे शत्रुओं का विनाश करेंगे व हमारा वर्धन करेंगे।
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra, potent lord who commands supreme power and, unobstructed, breaks down a hundred and a thousand adversaries, strengthens and exalts the devotees of yajna.