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नकि॒ष्टं कर्म॑णा नश॒न्न प्र यो॑ष॒न्न यो॑षति । दे॒वानां॒ य इन्मनो॒ यज॑मान॒ इय॑क्षत्य॒भीदय॑ज्वनो भुवत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

nakiṣ ṭaṁ karmaṇā naśan na pra yoṣan na yoṣati | devānāṁ ya in mano yajamāna iyakṣaty abhīd ayajvano bhuvat ||

पद पाठ

नकिः॑ । तम् । कर्म॑णा । न॒श॒त् । न । प्र । यो॒ष॒त् । न । यो॒ष॒ति॒ । दे॒वाना॑म् । यः । इत् । मनः॑ । यज॑मानः । इय॑क्षति । अ॒भि । इत् । अय॑ज्वनः । भु॒व॒त् ॥ ८.३१.१७

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:31» मन्त्र:17 | अष्टक:6» अध्याय:2» वर्ग:40» मन्त्र:7 | मण्डल:8» अनुवाक:5» मन्त्र:17


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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - जो केवल परमात्मा के आश्रय पर रहता है, (तम्) उस सुप्रसिद्ध भक्त को (नकिः) कोई नहीं (कर्मणा) अपने कर्म से (नशत्) व्यापता है अर्थात् स्वकर्म के द्वारा कोई उसके तुल्य नहीं होता है और वह स्वयम् (न+प्र+योषत्) अपने स्थान से और भक्ति आदि से कभी प्रचलित नहीं होता है तथा (न+योषति) पुत्र-पौत्रादिकों से तथा विविध प्रकार के धनों से वह कदापि पृथक् नहीं होता। अर्थात् वह सदा ऐहिक सुखों से युक्त रहता है। (देवानाम्) इत्यादि पूर्ववत् ॥१७॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

यज्ञशील की सर्वोत्कृष्ट स्थिति

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (यः) = जो (यजमान:) = यज्ञशील बनकर (इत्) = निश्चय से देवाना (मनः) = देवों के मन को (इयक्षति) = अपने साथ संगत करने का प्रयत्न करता है, वह (इत्) = निश्चय से (अयज्वनः) = अयज्ञशील पुरुषों को (अभिभवत्) = अभिभूत कर लेता है। [२] (तम्) = उस यजमान को (कर्मणा) = किन्हीं भी कर्मों के द्वारा (नकिः नशत्) = कोई व्याप्त [ प्राप्त] नहीं कर पाता। यज्ञशीलता ही सर्वोत्तम कर्म है। कोई भी इसको (न योषत्) = स्वस्थान से च्युत नहीं कर पाता। (योषति) = यह यजमान अपने पुत्रों व धनों में रहता हुआ भी कभी उस प्रभु से पृथक् नहीं होता।
भावार्थभाषाः - भावार्थ - यज्ञशील पुरुष दिव्य मन को प्राप्त करके सर्वोत्तम स्थिति में पहुँचता है। यह स्वस्थान से परिभ्रष्ट नहीं किया जाता। संसार में रहता हुआ भी प्रभु से पृथक् नहीं होता ।
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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - केवलं महेशमुपाश्रित्य तिष्ठति। तं सुप्रसिद्धं जनम्। नकिः नहि कश्चित् पुरुषः। कर्मणा। नशत् व्याप्नोति। नशतिर्व्याप्तिकर्मा। न तेन तुल्यः कश्चिद् भवतीत्यर्थः। पुनः। स जनः। न प्रयोषत् स्वस्थानात् प्रचलितो न भवति। किञ्च। न योषति। पुत्रादिभिर्धनादिभिश्च पृथक्कृतो न भवति। सदा ऐहिकसुखैः संयुक्तो भवतीत्यर्थः। यः देवानां पूर्ववत् ॥१७॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - The yajamana who with sincere mind and action, serves the divinities, no one can equal by action, much less destroy. Nor does he forsake his own path, nor can anyone else lead him astray. Indeed he surpasses all those who are uncharitable and perform no yajnic service to divinity and humanity.