पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (यजमान) = यज्ञशील पुरुष ! तू (न रिष्यसि) = हिंसित नहीं होता, तुझे वासनाएँ आक्रान्त नहीं कर पातीं। हे (सुन्वान) = अपने शरीर में सोम का सम्पादन करनेवाले पुरुष ! न तू हिंसित नहीं होता । हे (देवयो) = उस प्रकाशमय प्रभु को अपने साथ जोड़ने की कामनावाले पुरुष ! तू (न) = हिंसित नहीं होता। 'यजमान, सुन्वान व देवयु' बनकर हम वासनाओं के आक्रमण से अपने को बचायें। [२] (यः) = जो भी (यजमानः) = यज्ञशील बनकर (देवानां मनः) = देवों के मन को (इत्) = निश्चय से (इयक्षति) = अपने साथ संगत करने की कामना करता है, वह (इत्) = निश्चय से (अयज्वनः) = अयज्ञशील पुरुषों को (अभिभवत्) = अभिभूत करनेवाला होता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम यज्ञशील बनें, शरीर में सोम शक्ति का सम्पादन करें, उस देव [प्रभु] को प्राप्त करने की कामनावाले हों। ऐसा होने पर हम वासनारूप शत्रुओं से हिंसित न होंगे। यज्ञशील बनकर दिव्य मनवाले होते हुए हम अयज्ञशील पुरुषों का अभिभव करनेवाले हों। यज्ञशीलता हमें अयज्ञशीलों से ऊपर उठाये ।