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अ॒ग्निं व॑: पू॒र्व्यं गि॒रा दे॒वमी॑ळे॒ वसू॑नाम् । स॒प॒र्यन्त॑: पुरुप्रि॒यं मि॒त्रं न क्षे॑त्र॒साध॑सम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agniṁ vaḥ pūrvyaṁ girā devam īḻe vasūnām | saparyantaḥ purupriyam mitraṁ na kṣetrasādhasam ||

पद पाठ

अ॒ग्निम् । वः॒ । पू॒र्व्य॑म् । गि॒रा । दे॒वम् । ई॒ळे॒ । वसू॑नाम् । स॒प॒र्यन्तः॑ । पु॒रु॒ऽप्रि॒यम् । मि॒त्रम् । न । क्षे॒त्र॒ऽसाध॑सम् ॥ ८.३१.१४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:31» मन्त्र:14 | अष्टक:6» अध्याय:2» वर्ग:40» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:5» मन्त्र:14


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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वज्जनो ! (वः) आप लोगों के मध्य जैसे मैं (पूर्व्यम्) पुरातन (वसूनाम्+देवम्) धनों के देव महाधनेश (अग्निम्) परमात्मा की (ईळे) स्तुति करता हूँ, वैसे ही आप लोग भी (मित्रम्+न) सबके मित्र अतएव (पुरुप्रियम्) बहुप्रिय=सर्वप्रिय (क्षेत्रसाधसम्) पृथिवी आदि लोक-लोकान्तर के उत्पादक परमात्मा को (सपर्यन्तः) पूजते हुए स्तुति कीजिये। अर्थात् कुपथ को त्याग सुपथ पर आइए ॥१४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'वशु प्रदाता' प्रभु

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अग्निम्) = उस अग्रेणी प्रभु का (गिरा) = ज्ञान की वाणियों से (ईडे) = मैं स्तवन करता हूँ। (वः पूर्व्यम्) = जो तुम सबका पालन व पूरण करनेवालों में उत्तम है, (वसूनां देवम्) = सब वसुओं का देनेवाला है। इस प्रभु का मैं स्तवन करता हूँ। [२] उस (पुरुप्रियम्) = पालक व पूरक [पुरु] तथा प्रीणित करनेवाले प्रभु को, जो (मित्रं न) = एक मित्र के समान (क्षेत्रसाधसम्) = इस हमारे शरीर रूप क्षेत्र को सिद्ध करनेवाले हैं। उस प्रभु को (सपर्यन्तः) = पूजते हुए हम वसुओं की याचना करते हैं। प्रभु ही हमारे निवास के लिये आवश्यक सब वसुओं के देनेवाले हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम उस पूर्व्य अग्नि का स्तवन करें। वे अग्रेणी प्रभु ही सब वसुओं को देकर हमारे जीवनयज्ञ को सिद्ध करते हैं।
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शिव शंकर शर्मा

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वांसः ! वो युष्माकं मध्ये यथाऽहम्। पूर्व्यं पुरातनम्। वसूनाम् धनानां देवमीशं धनेशमित्यर्थः (अग्निम्) महेशम्। गिरा=वाण्या। ईळे स्तौमि। तथा यूयमपि। मित्रं न मित्रमिव सर्वेषां मित्रभूतम्। अतः पुरुप्रियम् बहुप्रियं सर्वप्रियम्। तथा क्षेत्रसाधसम्। क्षियन्ति निवसन्ति जीवा यत्र तत्र क्षेत्रं जगद्रूपं भूमिः। तत्साधयितारम् सर्वोत्पादकमित्यर्थः। ईदृशं महेशम् सपर्यन्तः पूजयन्तः सन्तः। स्तुतः ॥१४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - With sincere word and thought I serve and adore Agni, eternal and gracious lord of wealth and prosperity. You too serve the same lord of universal love as a friend, the lord giver of fulfilment to us in our existential state of being.