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सदो॒ द्वा च॑क्राते उप॒मा दि॒वि स॒म्राजा॑ स॒र्पिरा॑सुती ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sado dvā cakrāte upamā divi samrājā sarpirāsutī ||

पद पाठ

सदः॑ । द्वा । च॒क्रा॒ते॒ इति॑ । उ॒प॒ऽमा । दि॒वि । स॒म्ऽराजा॑ । स॒र्पिर्ऽआ॑सुती॒ इति॑ स॒र्पिःऽआ॑सुती ॥ ८.२९.९

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:29» मन्त्र:9 | अष्टक:6» अध्याय:2» वर्ग:36» मन्त्र:9 | मण्डल:8» अनुवाक:4» मन्त्र:9


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शिव शंकर शर्मा

मुख और रसना का वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - इस ऋचा से मुख और मुखस्थ रसना का वर्णन है। (उपमा) उपम=उपमास्वरूप, क्योंकि मुख की उपमा अधिक दी जाती है। अथवा जिनसे सब जाना जाए, वे उपमा, मुख से ही सब परिचित होता है। पुनः (सम्राजा) सम्यक् प्रकाशमान पुनः (सर्पिरासुती) घृत आदि खाद्य पदार्थों के आस्वादक जो (द्वा) दो मुख और रसना हैं, वे (दिवि) प्रकाशमान स्थान में (सदः) स्वनिवासस्थान (चक्राते) बनाते हैं ॥९॥
भावार्थभाषाः - अपने-२ प्रत्येक इन्द्रिय के गुण, आकार और स्थिति जानें ॥९॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

मित्रावरुणौ (स्नेह व निर्देषता )

पदार्थान्वयभाषाः - [१] इस जीवनयात्रा में (द्वा) = दो मित्र और वरुण, स्नेह व निद्वेषता के भाव (दिवि) = सदा प्रकाशमय लोक में, स्वर्ग में (सदः चक्राते) = हमारा घर बनाते हैं, निवास करते हैं। यदि संसार में हम स्नेह व निर्देषता से चलें तो जीवनयात्रा बड़ी सुखमय व निर्विघ्न रहती है। [२] ये मित्र और वरुण (उपमा) = [उप+मा] सब कुछ देनेवाले हैं। इनके होने पर 'स्वास्थ्य, शान्ति व बुद्धि' प्राप्त होती है। (सम्राजा) = ये हमारे जीवनों को सम्यक् दीप्त करते हैं। और (सर्पिरासुती) = [सर्पिः = उदकं = रेतः नि० १.१२] शरीर में रेतःकण रूप जलों को सर्वत्र आसुत करनेवाले हैं। स्नेह व निर्देषता के होने पर शरीर में इन वीर्यकणों का सम्यक् प्रतिष्ठान होता है। 'सर्पिस्' का अर्थ घृत भी है, घृत 'दीप्ति' का पर्याय है। रेतःकणों के रक्षण के द्वारा हमारे जीवनों में ज्ञानदीप्ति चमक उठती है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-स्नेह व निद्वेषता ही इस जीवनयात्रा के मूल मन्त्र हैं, ये जीवन को स्वर्गतुल्य बना देते हैं, दीस कर देते हैं, शक्ति सम्पन्न करते हैं।
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शिव शंकर शर्मा

मुखरसने वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः - उपमा=उपमौ=उपमानभूतौ। प्रायो बहुधा मुखेनोपमा दीयते। यद्वा। उपमीयते=ज्ञायते सर्वमाभ्यामिति उपमौ। मुखेन सर्वः परिचीयते। सम्राजा=सम्राजौ=सम्यग् विराजमानौ। पुनः। सर्पिरासुती। सर्पिर्घृतमुपलक्षणम्। सर्पींषि=घृतादीनि खाद्यानि। आसूयेते=स्वादयतो यौ तौ सर्पिरासुती। द्वा=द्वौ=मुखजिह्वानामकौ देवौ। दिवि=द्योतने स्थाने। सदः=गृहम्=निवासस्थानम्। चक्राते=कुरुतः। ईदृशौ देवौ विद्यया ज्ञातव्यौ ॥९॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - And two of royal magnificence in closest proximity receive and enjoy oblations of ghrta and take their position in the regions of heavenly light. (These are Mitra and Varuna, sun and ocean, heat and cool of nature, or love and judgement, or sunlight and air in human life.)