अर्च॑न्त॒ एके॒ महि॒ साम॑ मन्वत॒ तेन॒ सूर्य॑मरोचयन् ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
arcanta eke mahi sāma manvata tena sūryam arocayan ||
पद पाठ
अर्च॑न्तः । एके॑ । महि॑ । साम॑ । म॒न्व॒त॒ । तेन॑ । सूर्य॑म् । अ॒रो॒च॒य॒न् ॥ ८.२९.१०
ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:29» मन्त्र:10
| अष्टक:6» अध्याय:2» वर्ग:36» मन्त्र:10
| मण्डल:8» अनुवाक:4» मन्त्र:10
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शिव शंकर शर्मा
अन्त में ईश ही पूज्य है, यह दिखलाते हैं।
पदार्थान्वयभाषाः - (एके) परमविख्यात सर्व प्राण (अर्चन्तः) परमात्मदेव की अर्चना करते हुए (महि) बृहत् (साम) गेय वस्तु को (मन्वत) गाते हैं, (तेन) उस सामगान से (सूर्यम्) सूर्यसमान प्रकाशक विवेक को प्रकाशित करते हैं। सब मनुष्य ईश की ही अर्चना, पूजा, स्तुति, प्रार्थना इत्यादि करें, यह शिक्षा इससे देते हैं ॥१०॥
भावार्थभाषाः - जैसे योगी, यति और विद्वानों के प्राण ईश्वर में लगे रहते हैं। इतरजन भी यथाशक्ति अपने इन्द्रियों को परोपकार में लगावें ॥१०॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार
अत्रयः [काम-क्रोध-लोभ से परे]
पदार्थान्वयभाषाः - [१] (अर्चन्तः) = प्रभु का पूजन करते हुए एके काम-क्रोध-लोभ को पराजित करनेवाले कई व्यक्ति (महि) = महान् (साम) = साममन्त्रों द्वारा उपासना को (मन्वत) = जानते हैं, अर्थात् साममन्त्रों द्वारा प्रभु का पूजन करते हैं। [२] (तेन) = इन साममन्त्रों द्वारा प्रभु-पूजन से (सूर्यम्) = ज्ञान के सूर्य को (अरोचयन्) = दीप्त करते हैं। प्रभु-पूजन से हमारे जीवनों में ज्ञान सूर्य का उदय होता है। हृदयस्थ प्रभु से हम ज्ञान-ज्योति को प्राप्त करते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम साममन्त्रों द्वारा प्रभु का उपासन करें। यह प्रभु का उपासन हमारे जीवनों में ज्ञान की ज्योति को जगायेगा। अगला सूक्त भी 'वैवस्वत मनु' का ही है-
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शिव शंकर शर्मा
अन्त ईश एव पूज्य इति दर्शयति।
पदार्थान्वयभाषाः - एके=सुप्रसिद्धाः। सर्वे प्राणाः। परमात्मदेवम्। अर्चयन्तः=पूजयन्तः। महि=महत्। साम=गेयवस्तु। मन्वत=मन्यन्ते=गायन्तीत्यर्थः। तेन गानेन। सूर्यम्=सूर्यमिव प्रकाशकं विवेकम्। अरोचयन्=रोचयन्ति=दीपयन्ति। सर्वे मनुष्या ईशमेवार्चन्तु, पूजयन्तु, स्तुवन्तु, प्रशंसन्तु इत्यादि शिक्षते ॥१०॥
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डॉ. तुलसी राम
पदार्थान्वयभाषाः - Some of them sing great hymns of Sama and glorify their lord and thereby light the sun. (These are the Adityas or universal powers free from threefold suffering, or the ten pranas which strengthen the soul for worship of the supreme lord of life and thereby enlighten the soul.)
