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अ॒भि प्रि॒या म॑रुतो॒ या वो॒ अश्व्या॑ ह॒व्या मि॑त्र प्रया॒थन॑ । आ ब॒र्हिरिन्द्रो॒ वरु॑णस्तु॒रा नर॑ आदि॒त्यास॑: सदन्तु नः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

abhi priyā maruto yā vo aśvyā havyā mitra prayāthana | ā barhir indro varuṇas turā nara ādityāsaḥ sadantu naḥ ||

पद पाठ

अ॒भि । प्रि॒या । म॒रु॒तः॒ । या । वः॒ । अश्व्या॑ । ह॒व्या । मि॒त्र॒ । प्र॒ऽया॒थन॑ । आ । ब॒र्हिः । इन्द्रः॑ । वरु॑णः । तु॒राः । नरः॑ । आ॒दि॒त्यासः॑ । स॒द॒न्तु॒ । नः॒ ॥ ८.२७.६

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:27» मन्त्र:6 | अष्टक:6» अध्याय:2» वर्ग:32» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:4» मन्त्र:6


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शिव शंकर शर्मा

पुनः वही विषय आ रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - (मरुतः+मित्र) हे बन्धुबान्धवो ! हे मित्रों ! (वः+या+प्रिया) आप लोगों के निकट जो-२ प्रिय वस्तु हैं, (अश्व्या) अश्वयुक्त (हव्या) विविध खाद्यपदार्थ जो आपके हैं, उनको (अभि) चारों तरफ (प्रयाथन) मनुष्यों में फैलाइये और (इन्द्रः+वरुणः) सेनानायक और राजप्रतिनिधि (आदित्यासः+नरः) तजोयुक्त अन्यान्य नेतागण सब कोई मिलकर और (तुराः) अपने-२ कार्य्य में शीघ्रता करते हुए (नः) हम प्रजाओं के (बर्हिः+आ+सदन्तु) आसनों पर बैठें ॥६॥
भावार्थभाषाः - मरुत्, मित्र, वरुण और आदित्य आदि शब्द अधिलोकार्थ में बन्धु और मित्रादिवाचक हैं। शुभकर्म में इन सबका सत्कार होना चाहिये ॥६॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'इन्द्र, वरुण, तुर, नर, आदित्य'

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (मरुतः) = प्राणो ! (या) = जो (वः) = आपके (प्रिया) = प्रीति के जनक (अश्व्या) = अश्वसंघ हैं, उत्तम इन्द्रियाश्व हैं, उन्हें (अभि प्रयाथन) = हमारे सम्मुख प्राप्त कराइये। हे (मित्र) = स्नेह की देवते ! तू हव्या हव्य पदार्थों को, यज्ञशेष के रूप में सेवन किये जानेवाले पदार्थों को हमारे लिये प्राप्त करा। सब के प्रति स्नेहवाला पुरुष यज्ञशेष का ही सेवन करेगा। यह कभी अकेला खानेवाला नहीं हो सकता। [२] (नरः) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले व्यक्ति, (आदित्यासः) = सब अच्छाइयों का आदान करनेवाले व्यक्ति (आदसन्तु) = आसीन हों। हम हृदय में 'इन्द्र' का ध्यान करते हुए जितेन्द्रिय बनें, 'वरुण' का ध्यान करते हुए 'निर्दोष' बनें। हम भी 'तुर नरों' का स्मरण करते हुए शत्रु संहार करनेवाले उन्नत पुरुष हों। तथा आदित्यों का स्मरण करते हुए आदित्य ही बनने के लिये यत्नशील हों।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्राणसाधना से हमारी इन्द्रियाँ उत्तम हों। स्नेह से पूर्ण होते हुए हम यज्ञशेष का ही सेवन करनेवाले बनें। हृदय में 'जितेन्द्रिय, निर्देष, शत्रु संहारक, गुणों का आदान करनेवाले' बनने का निश्चय करें।
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शिव शंकर शर्मा

पुनस्तदनुवर्तते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मरुतः=बान्धवाः ! तथा हे मित्र ! वः=युष्माकम्। या=यानि। प्रिया=प्रियाणि। वस्तूनि सन्ति। यानि। अश्व्या=अश्वयुक्तानि। हव्या=हव्यानि च। सन्ति। तानि। अभि=अभितः। प्रयाथन=इतस्ततो मनुष्येषु प्रापयत। इन्द्रः=सेनानायकः। वरुणः=राजप्रतिनिधिः। आदित्यासः= दीप्यमानाः। नरः=नेतारश्च। सर्वे मिलित्वा। तुराः=त्वरमाणाः। नोऽस्माकम्। बर्हिः=आसनम्। आसदन्तु=सीदन्तु=प्राप्नुवन्तु ॥६॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O Mitra, O Maruts, sun and winds, friends and brave associates, come and bring us all your dear and lovely gifts worthy of presentation and prize possession. O Indra, lord of power, thunder, lightning and rain, Varuna, waves of cosmic energy and justice in human affairs, and Adityas, solar radiations of the universe, all leading lights of nature and humanity, come fast and bless our homes and seats of yajna.