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यथा॑ वरो सु॒षाम्णे॑ स॒निभ्य॒ आव॑हो र॒यिम् । व्य॑श्वेभ्यः सुभगे वाजिनीवति ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yathā varo suṣāmṇe sanibhya āvaho rayim | vyaśvebhyaḥ subhage vājinīvati ||

पद पाठ

यथा॑ । व॒रो॒ इति॑ । सु॒ऽसाम्णे॑ । स॒निऽभ्यः॑ । आ । अव॑हः । र॒यिम् । विऽअ॑श्वेभ्यः । सु॒ऽभ॒गे॒ । वा॒जि॒नी॒ऽव॒ति॒ ॥ ८.२४.२८

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:24» मन्त्र:28 | अष्टक:6» अध्याय:2» वर्ग:20» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:4» मन्त्र:28


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शिव शंकर शर्मा

इन्द्रिय जेतव्य हैं, यह इससे दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (वरो) हे वरणीय परमदेव ! (यथा) जैसे तू (सुसाम्ने) सुन्दर गानेवाले (सनिभ्यः) और याचक सुपात्रों की ओर (रयिम्+आवहसि) धन ले जाता है, (सुभगे) हे सुभगे ! (वाजिनीवति) हे बुद्धे ! इन्द्र के समान ही तू भी (व्यश्वेभ्यः) जितेन्द्रिय ऋषियों को धन दे ॥२८॥
भावार्थभाषाः - जैसे परमात्मा इस संसार पर कृपा रखता है, तद्वत् सब ही परस्पर रक्खें और अपनी-२ इन्द्रियों को भी अपने-२ वश में कर उसकी ओर लगावें, तब ही मनुष्य ऋषि और महाकवि आदि होता है ॥२८॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

पति-पत्नी की दानशीलता

पदार्थान्वयभाषाः - [१] यहाँ मन्त्र में पति-पत्नी को 'वरु व सुभगा' कहा गया है। पति वरु है, श्रेष्ठ मार्ग का वरण करनेवाला है, प्रकृति की अपेक्षा प्रभु के मार्ग पर चलनेवाला है। पत्नी घर को सौभाग्य-सम्पन्न बनानेवाली है। इनके लिये कहते हैं कि हे (वरो) = श्रेष्ठ मार्ग का वरण करनेवाले गृह स्वामिन्! तू (यथा) = जैसे (सुषाम्णे) = उत्तम शान्त स्वभाववाले उपासकों के लिये (सनिभ्यः) = संविभावा के लिये (रयिं आवहः) = धन को प्राप्त कराता है। इसी प्रकार हे वाजिनीवति उत्तम अन्नोंवाली (सुभगे) = घर को सौभाग्य सम्पन्न बनानेवाली पत्नि ! तू भी (व्यश्वेभ्यः) = उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाले पुरुषों के लिये धन को देनेवाली होती है। [२] वस्तुतः घर में अपने-अपने कर्त्तव्य कर्मों को करने के द्वारा घर को उत्तम बनाते हुए पति-पत्नी दोनों का ही कर्त्तव्य है कि उत्तम पुरुषों के लिये उत्तम कार्यों के लिये सदा दान करते ही रहें।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-पति उत्तम मार्ग का वरण करता हुआ घर को ऐश्वर्य सम्पन्न बनाये तथा पत्नी घर में अन्न की कमी न होने देती हुई घर को सौभाग्य-सम्पन्न रखे। दोनों सदा उत्तम पुरुषों को उत्तम कार्यों के लिये धन देते रहें।
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शिव शंकर शर्मा

इन्द्रियाणि जेतव्यानीति दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे वरो=वरणीय परमदेव ! यथा त्वम्। सुसाम्ने=शोभनगानवते। सनिभ्यः=सुपात्रेभ्यश्च। रयिम्= सम्पत्तिम्। आवहः=आवहसि। तथा। हे सुभगे=शोभनधने ! हे वाजिनीवति=बुद्धे ! व्यश्वेभ्यः=जितेन्द्रियेभ्य ऋषिभ्यः। त्वमपि। रयिम्। देहि ॥२८॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Just as the lord supreme, choice of the wise for worship and service, brings wealth and honour to the Sama celebrants and supplicants, so may you, O lady of good fortune possessed of food, energy prosperity of life, and divine intelligence, bring wealth of honour and knowledge to the sages of mental and moral discipline.