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अति॑थिं॒ मानु॑षाणां सू॒नुं वन॒स्पती॑नाम् । विप्रा॑ अ॒ग्निमव॑से प्र॒त्नमी॑ळते ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

atithim mānuṣāṇāṁ sūnuṁ vanaspatīnām | viprā agnim avase pratnam īḻate ||

पद पाठ

अति॑थिम् । मानु॑षाणाम् । सू॒नुम् । वन॒स्पती॑नाम् । विप्राः॑ । अ॒ग्निम् । अव॑से । प्र॒त्नम् । ई॒ळ॒ते॒ ॥ ८.२३.२५

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:23» मन्त्र:25 | अष्टक:6» अध्याय:2» वर्ग:13» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:4» मन्त्र:25


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शिव शंकर शर्मा

मेधावी पुरुष भी उसी की स्तुति करते हैं, यह दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (विप्राः) मेधाविजन (मानुषाणामतिथिम्) मनुष्यों के अतिथिवत् पूज्य (वनस्पतीनाम्) ओषधियों के (सूनुम्) उत्पादक (प्रत्नम्) पुराण (अग्निम्) परमात्मा की (ईडते) स्तुति करते हैं ॥२५॥
भावार्थभाषाः - जब बुद्धिमान् जन भी उसी की पूजा और आराधना करते हैं, तब अन्य जनों को तो वह कर्म अवश्य करना चाहिये, यह शिक्षा इससे देते हैं ॥२५॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (मानुषाणाम्) मनुष्यों के (अतिथिम्) अतिथिसमान (वनस्पतीनाम्) वनस्पतियों के (सूनुम्) पुत्रसमान (प्रत्नम्) चिरस्थायी (अग्निम्) अग्निसदृश उस शूर को (विप्राः) विद्वान् पुरुष (अवसे) रक्षार्थ (ईळते) स्तुतिद्वारा प्रसन्न करते हैं ॥२५॥
भावार्थभाषाः - भाव यह है कि सबसे प्रथम आतिथ्य के योग्य देश तथा धर्म के रक्षक शूर वीर ही होते हैं, इसलिये विद्वानों को उचित है कि ऐसे वीरों का इतिहास ओजस्विनी भाषा में लिखकर उनका स्तवन करें और उनके योग्य पदार्थ अर्पण कर उन्हें सदैव प्रसन्न रखें ॥२५॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

मानुषाणां अतिर्थिं, वनस्पतीनां सूनुम्

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (विप्राः) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाले, अपनी कमियों को दूर करनेवाले, ज्ञानी पुरुष (प्रत्नम्) = उस सनातन (अग्निम्) = अग्रेणी प्रभु को (अवसे) = रक्षण के लिये (ईडते) = स्तुत करते हैं। इस स्तोता विप्र का प्रभु रक्षण करते ही हैं, इसे काम-क्रोध-लोभ आदि के आक्रमण से बचाते हैं। [२] उस प्रभु को उपासित करते हैं जो (मानुषाणाम्) = विचारशील पुरुषों का (अतिथिम्) = अतिथि है, अतिथिवत् पूज्य है। तथा (वनस्पतीनाम्) = [वन = A ray of light] ज्ञान-रश्मियों के रक्षक पुरुषों का (सूनुम्) = [षू प्रेरणे] प्रेरक है। विचारशील पुरुष सदा प्रभु का पूजन करते हैं और ज्ञानरश्मियों का रक्षण करनेवाले पुरुष प्रभु-प्रेरणा को सुन पाते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- विप्र रक्षण के लिये प्रभु की आराधना करते हैं। विचारशील पुरुष प्रभु को अतिथिवत् पूजते हैं और ज्ञानरश्मियों का रक्षण करनेवाले पुरुष प्रभु की प्रेरणा को सुना करते हैं।
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शिव शंकर शर्मा

मेधाविनोऽपि तमेव स्तुवन्तीति दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - विप्राः=मेधाविनो जनाः। मानुषाणाम्। अतिथिम्=अतिथिवत् पूज्यम्। वनस्पतीनाम्=औषधीनाम्। सूनुम्=उत्पादकम्। प्रत्नम्=पुराणम्। अग्निमीडते ॥२५॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (मानुषाणाम्) मनुष्याणाम् (अतिथिम्) अतिथिमिव (वनस्पतीनाम्) वनस्पत्यादिप्राणिनाम् (सूनुम्) पुत्रमिव (प्रत्नम्) पुरातनम् (अग्निम्) अग्निसदृशं तं शूरम् (विप्राः) विद्वांसः (अवसे) रक्षायै (ईळते) स्तुवन्ति ॥२५॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Sages and scholars worship Agni, primeval presence of the universe, life giver of herbs and trees and honourable like a welcome guest in people’s homes for the sake of protection and progress.