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श्रु॒ष्ट्य॑ग्ने॒ नव॑स्य मे॒ स्तोम॑स्य वीर विश्पते । नि मा॒यिन॒स्तपु॑षा र॒क्षसो॑ दह ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śruṣṭy agne navasya me stomasya vīra viśpate | ni māyinas tapuṣā rakṣaso daha ||

पद पाठ

श्रु॒ष्टी । अ॒ग्ने॒ । नव॑स्य । मे॒ । स्तोम॑स्य । वी॒र॒ । वि॒श्प॒ते॒ । नि । मा॒यिनः॑ । तपु॑षा । र॒क्षसः॑ । द॒ह॒ ॥ ८.२३.१४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:23» मन्त्र:14 | अष्टक:6» अध्याय:2» वर्ग:11» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:4» मन्त्र:14


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शिव शंकर शर्मा

उसकी प्रार्थना दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (वीर) हे महावीर ! (विश्पते) हे प्रजाओं के अधिपति (अग्ने) सर्वाधार ! (मे) मेरे (नवस्य+स्तोमस्य) नूतन स्तोत्रों को (श्रुष्टी) सुनकर (मायिनः+रक्षसः) मायी राक्षसों को (तपुषा) अपने तापक तेज से (निदह) अत्यन्त भस्म कर दे ॥१४॥
भावार्थभाषाः - आन्तरिक दुर्गुण ही महाराक्षस हैं। अपने में परमात्मा की स्थिति के परिज्ञान से प्रतिदिन उनकी क्षीणता होती जाती है। अतः ऐसी प्रार्थना की जाती है ॥१४॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वीर, विश्पते, अग्ने) हे प्रजाओं के पालक वीर शूरपते ! (मे, नवस्य, स्तोमस्य) मेरे प्रारम्भ किये हुए स्तोत्रों के (मायिनः, रक्षसः) विघ्नकारक जो मायावी राक्षस हैं, उन्हें (तपुषा) अपने तेजसे (श्रुष्टी, निदह) शीघ्र भस्म करें। “श्रुष्टी” नाम शीघ्र का है, प्र० निरु० ६।१३। सायणोक्त श्रुत्वा अर्थ करना ठीक नहीं, क्योंकि स्नात्व्यादि गण में मानने पर भी वलोप अप्रामाणिक ही मानना पड़ेगा ॥१४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में यह वर्णन किया है कि ज्ञानयज्ञ, कर्मयज्ञ, उपासनात्मकयज्ञ तथा ऐश्वर्य की वृद्धि करनेवाले विश्वजिदादि याग, इन सब यज्ञों की रक्षा के लिये बाणविद्यावेत्ता योद्धा ही याज्ञिकों को सुरक्षित रखते हैं, अन्य नहीं, इसलिये प्रजाजनों को उचित है कि विघ्नकारक राक्षसों को शीघ्र भस्म करने के लिये क्षात्रधर्म को सुरक्षित रक्खें ॥१४॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

मायावी राक्षसों का दहन

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (वीर) = शत्रुओं के कम्पक, (विश्पते) = इस प्रकार प्रजाओं के रक्षक (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (मे) = मेरे से किये जानेवाले इस (नवस्य) = [नव गतौ] मुझे गतिमय जीवनवाला बनानेवाले (स्तोमस्य) = स्तोम का (श्रुष्टी) = श्रवण करके आप (मायिनः रक्षसः) = इन मायावी राक्षसी भावों को (तपुषा) = अपने तापक तेज से (निदह) = नितरां दग्ध कर दीजिये। [२] प्रभु का स्तवन जहाँ हमारे सामने एक उच्च लक्ष्य को उपस्थित करके विशिष्ट गति को पैदा करता है, वहाँ हमें यह स्तवन प्रभु की शक्ति से शक्ति सम्पन्न बनाता है। यह प्रभु का तापक तेज सब राक्षसी भावों को दग्ध कर देता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करें। यह स्तवन हमें गतिमय व शक्ति सम्पन्न बनायेगा। यह शक्ति सब मायावी राक्षसी वृत्तियों को शीर्ण करनेवाली होगी।
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शिव शंकर शर्मा

तस्य प्रार्थनां दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे वीर=हे विश्पते। अग्ने ! मे=मम। नवस्य+स्तोमस्य=नवं स्तोत्रम्। श्रुष्टी=श्रुत्वा। मायिनो रक्षसः। तपुषा=तापकेन तेजसा। निदह=नितराम्। भस्मीकुरु ॥१४॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वीर, विश्पते, अग्ने) हे प्रजानां पालक वीराग्ने ! (मे, नवस्य, स्तोमस्य) मम नूतनस्य स्तोत्रस्य (मायिनः, रक्षसः) मायिकान् राक्षसान् विघ्नकर्तॄन् (तपुषा) तेजसा (श्रुष्टी, निदह) क्षिप्रं दह “श्रुष्टीति क्षिप्रमिति यास्कः” ॥१४॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Mighty brave Agni, lord of the people, saving spirit of life, hearing my new song of praise and prayer, bum off the destructive wiles of the evil forces with your heat.