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यस्य॑ वा यू॒यं प्रति॑ वा॒जिनो॑ नर॒ आ ह॒व्या वी॒तये॑ ग॒थ । अ॒भि ष द्यु॒म्नैरु॒त वाज॑सातिभिः सु॒म्ना वो॑ धूतयो नशत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yasya vā yūyam prati vājino nara ā havyā vītaye gatha | abhi ṣa dyumnair uta vājasātibhiḥ sumnā vo dhūtayo naśat ||

पद पाठ

यस्य॑ । वा॒ । यू॒यम् । प्रति॑ । वा॒जिनः॑ । न॒रः॒ । आ । ह॒व्या । वी॒तये॑ । ग॒थ । अ॒भि । सः । द्यु॒म्नैः । उ॒त । वाज॑सातिऽभिः । सु॒म्ना । वः॒ । धू॒त॒यः॒ । न॒श॒त् ॥ ८.२०.१६

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:20» मन्त्र:16 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:39» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:16


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शिव शंकर शर्मा

पुनः वही विषय आ रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - (नरः) हे नेता सेनाओ ! आप (यस्य+वा) जिस (वाजिनः) यजमान अर्थात् सेवकजन के (हव्या) धनों के (प्रति) प्रति (वीतये) रक्षा के लिये (आगथ) आते-जाते रहते हैं (धूतयः) हे दुष्टों को कम्पानेवाली सेनाओ ! (सः) वह (द्युम्नैः) विविध धनों से वा यशों से (उत) और (वाजसातिभिः) अन्नों के दानों से युक्त होता है और (वः) आप लोगों से सुरक्षित होकर वह जन सदा (सुम्ना) विविध प्रकार के धनों को (अभिनशत्) अच्छी तरह से प्राप्त करता है ॥१६॥
भावार्थभाषाः - सेनाओं को उचित है कि वे प्रजाओं के धनों और सुखों को पालें और बचावें ॥१६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (नरः) हे नेता योद्धाओ ! (यस्य, वा) अथवा जिसके (हव्या, प्रति) स्वभोग्य पदार्थों के प्रति (वाजिनः, यूयम्) बलिष्ठ आप (वीतये) उपभोगार्थ (आगथ) आते हैं (धूतयः) हे शत्रुओं को कंपानेवाले ! (सः) वह मनुष्य (द्युम्नैः) दिव्य धन से (उत) और (वाजसातिभिः) अनेकविध बलों से (अभि) अभियुक्त होकर (वः) आपके (सुम्ना) सुखों से (नशत्) व्याप्त होता है ॥१६॥
भावार्थभाषाः - हे शत्रुओं को तपानेवाले शूरवीर योद्धाओ ! वह पुरुष धन-धामादि अनेकविध सुखों से युक्त होता है, जिसके यहाँ आप उपभोगार्थ जाते हैं, या यों कहो कि वह पुरुष अनन्त प्रकार के भोगों तथा अभ्युदय को प्राप्त होता है, जो आपकी आज्ञापालन करता तथा विविध प्रकार के पदार्थों से आपकी सेवा करता है ॥१६॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

द्युम्न-वाज-सुम्न

पदार्थान्वयभाषाः - [१] हे (वाजिनः) = शक्तिशाली (नरः) = उन्नतिपथ पर हमें ले चलनेवाले प्राणो ! (यस्य) = जिस भी मनुष्य के (न) = निश्चय से (हव्य) = हव्य पदार्थों को ही (वीतये) = खाने के लिये (यूयम्) = आप प्रति (आगथ) = प्रतिदिन प्राप्त होते हो। अर्थात् जो मनुष्य सात्त्विक अन्नों का ही सेवन करता हुआ आपका वर्धन करता है (सः) = वह (वा) = आपकी (द्युम्नैः) = ज्ञान - ज्योतियों से (अभिनशत्) = व्याप्त होता है। [२] (उत) = और वह पुरुष (वाजसातिभिः) = शक्तियों के सम्भजन से युक्त होता है। हे (धूतयः) = शत्रुओं से कम्पित करनेवाले प्राणो ! रोगों व वासनाओं को नष्ट करनेवाले प्राणो ! यह व्यक्ति (वः) = आपके (सुम्ना) = सब सुखों व रक्षणों को (नशत्) = प्राप्त होता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम प्राणसाधना के साथ सात्त्विक भोजन को अपनायें, तो ज्ञान शक्ति व सब सुखों को प्राप्त करेंगे।
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शिव शंकर शर्मा

पुनस्तदनुवर्त्तते।

पदार्थान्वयभाषाः - नरः=हे नेतारो मरुतः। यूयम्। यस्य वा=यस्य च। वाजिनः=हविष्मतो यजमानस्य। हव्या=हव्यानि हवींषि। प्रति=उद्दिश्य। वीतये=रक्षणाय। आ गथ=आगच्छथ। स यजमानः। धूतयः=हे कम्पयितारो मरुतः। द्युम्नैः। द्योतमानैरन्नैर्यशोभिर्वा। उत=अपि च। वाजसातिभिः=वाजानां संभजनैश्च। वः=युष्माकम्। सुम्ना=सुम्नानि=सुखानि। अभिनशत्=अभितो व्याप्नोति। सेनाभिर्यत्नेन प्रजाधनानि रक्षितव्यानि ॥१६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (नरः) हे नेतारः ! (यस्य, वा) अथवा यस्य (हव्या, प्रति) हव्यानि प्रति (वाजिनः, यूयम्) बलवन्तो यूयम् (वीतये) उपभोगाय (आगथ) आगच्छथ (धूतयः) हे कम्पयितारः ! (सः) स जनः (द्युम्नैः) द्योतमानधनैः (उत) अथ (वाजसातिभिः) बलभागैः (अभि) अभियुक्तः सन् (वः) युष्माकम् (सुम्ना) सुखानि (नशत्) व्याप्नोति ॥१६॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O Maruts, leading lights of life, movers and shakers of negativities and opposition, whoever the man with yajnic gift when you approach to protect and partake of his offerings, is blest with peace and comfort and he prospers with honour and fame and wins victories in the battles for food, energy and wealth with prestige.