व॒यमु॑ त्वा त॒दिद॑र्था॒ इन्द्र॑ त्वा॒यन्त॒: सखा॑यः । कण्वा॑ उ॒क्थेभि॑र्जरन्ते ॥
vayam u tvā tadidarthā indra tvāyantaḥ sakhāyaḥ | kaṇvā ukthebhir jarante ||
व॒यम् । ऊँ॒ इति॑ । त्वा । त॒तित्ऽअ॑र्थाः । इन्द्र॑ । त्वा॒ऽयन्तः॑ । सखा॑यः । कण्वाः॑ । उ॒क्थेभिः॑ । ज॒र॒न्ते॒ ॥ ८.२.१६
शिव शंकर शर्मा
सब ही भगवान् की स्तुति करते हैं, यह इससे दिखलाते हैं।
आर्यमुनि
अब कर्मयोगी की स्तुति करना कथन करते हैं।
हरिशरण सिद्धान्तालंकार
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (वयम्) = हम (उ) = निश्चय से (त्वायन्तः) = आपको प्राप्त करने की कामनावले होते हुए (उ) = निश्चय से (त्वा) = आपका ही स्तवन करते हैं। (तदिदर्था:) = [तत् इत अर्धा:] वह प्रभु स्तवन ही हमारा प्रयोजन हो । अन्य लौकिक कामनाओं से स्तवन न करके हम स्तवन को स्तवन के लिये ही करें। 'स्तवन ही हमारा कर्त्तव्य है' ऐसा जानें। हवन करते हुए हम (सखायः) = आपके मित्र होते हैं। [२] (कण्वाः) = मेधावी पुरुष (उक्थेभिः) = उच्चैः गीयमान स्तोतों से (जरन्ते) = हे प्रभो! आपका स्तवन करते हैं। मूर्ख व नासमझ पुरुष ही स्तवन से दूर रहता है ।
शिव शंकर शर्मा
सर्वे भगवन्तं स्तुवन्तीत्यनया दर्शयति।
आर्यमुनि
अथ जिज्ञासुभिः कर्मयोगिस्तवनं वर्ण्यते।
