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यस्य॑ द्वि॒बर्ह॑सो बृ॒हत्सहो॑ दा॒धार॒ रोद॑सी । गि॒रीँरज्राँ॑ अ॒पः स्व॑र्वृषत्व॒ना ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yasya dvibarhaso bṛhat saho dādhāra rodasī | girīm̐r ajrām̐ apaḥ svar vṛṣatvanā ||

पद पाठ

यस्य॑ । द्वि॒ऽबर्ह॑सः । बृ॒हत् । सहः॑ । दा॒धार॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । गि॒रीन् । अज्रा॑न् । अ॒पः । स्वः॑ । वृ॒ष॒ऽत्व॒ना ॥ ८.१५.२

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:15» मन्त्र:2 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:17» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:2


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शिव शंकर शर्मा

परमात्मा की स्तुति दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (द्विबर्हसः) द्युलोक और पृथिवीलोक के धारण करनेवाले (यस्य) जिस इन्द्र का (बृहत्) महान् (सहः) बल (रोदसी) परस्पर रोधनशील इन दोनों लोकों का (दाधार) अच्छे प्रकार पालन-पोषण और धारण करता है और जो बल (अज्रान्) आकाश में शीघ्रगामी (गिरीन्) मेघों को और (स्वः) सुखकारी (अपः) जल को (वृषत्वना) अपनी शक्ति से धारण करता है, उस महाबलिष्ठ संसारपोषक परमात्मा के यश को ही हे मनुष्यों ! गाओ ॥२॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा ही इस पृथिवी, उस द्युलोक, उन नक्षत्रों और अन्यान्य सकल वस्तुओं का धारण और पोषण करता है, उसकी ईदृशी शक्ति को जानकर उसी की उपासना करे ॥२॥
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आर्यमुनि

अब उस पूज्य देव का महत्त्व वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (द्विबर्हसः, यस्य) दोनों “पृथिवी और द्युलोक” स्थानों में वृद्धिप्राप्त जिस आपका (बृहत्, सहः) महा पराक्रम (रोदसी, दाधार) द्युलोक पृथिवीलोक को धारण करता है और (स्वः) अन्तरिक्ष में (वृषत्वना) वर्षण के लिये (अज्रान्, गिरीन्) चञ्चल मेघों के प्रति (अपः) जलों को धारण करता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उस महान् परमात्मा की महिमा वर्णन की गई है कि वह परमात्मदेव, जिसके पराक्रम से द्युलोक तथा पृथिवी आदि लोक-लोकान्तर अपनी गति करते हुए स्थित हैं, जो अपनी मर्यादा से कभी चलायमान नहीं होते और अन्तरिक्ष में चञ्चल मेघमण्डल को धारण करके समयानुकूल वर्षा करना आपकी महान् महिमा है। अधिक क्या, अनेकानेक आपके ऐसे महत्त्वपूर्ण कार्य्य हैं, जिनका वर्णन करना मनुष्य की बुद्धि से सर्वथा बाहर है ॥२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान् प्रभु की सर्वाधार हैं

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (यस्य) = जिस (द्विबर्हसः) = ज्ञान और शक्ति दोनों दृष्टिकोणों से बढ़े हुए प्रभु का (बृहत् सहः) = महान् बल (रोदसी) = द्यावापृथिवी का दाधार धारण करता है। वे प्रभु ही (वृषत्वना) = अपने वीर्य व सामर्थ्य से (गिरीन्) = पर्वतों को, (अज्रान्) = खेतों को [ मैदानों को], (अपः) = जलों को तथा (स्वः) = प्रकाश को धारण करते हैं । [२] वस्तुतः प्रभु ही सर्वाधार हैं। सर्वशक्तिमान् व सर्वज्ञ होने से सब चीजों का वे ठीक रूप में धारण कर रहे हैं। प्रभु का उपासक भी ज्ञान और शक्ति को बढ़ाता हुआ अपने जीवन में मस्तिष्क व शरीर दोनों का सुन्दरता से धारण करता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- वे सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान् प्रभु अपने सामर्थ्य से सारे ब्रह्माण्ड को धारण कर रहे हैं।
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शिव शंकर शर्मा

परमात्मनः स्तुतिं दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - द्विबर्हसः=द्वयोर्द्यावापृथिव्योर्बर्हसो धारकस्य। यस्येन्द्रस्य। बृहत्=महत्। सहो बलम्। रोदसी=परस्पररोधनशीले द्यावापृथिव्यौ। दाधार=धारयति। पुनस्तद्बलम्। अज्रान्= क्षिप्रगमनान्। गिरीन्=मेघान्। गिरिरिति मेघनामसु पठितम्। अपि च। स्वः=सुखकारिणीः। अपः=जलानि। वृषत्वना−वृषत्वेन= स्वशक्त्या दधाति, तमेवेन्द्रं हे मनुष्याः सेवध्वमित्याकृष्यते ॥२॥
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आर्यमुनि

सम्प्रति तन्महत्त्वं वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः - (द्विबर्हसः, यस्य) द्वयोः स्थानयोर्वृद्धस्य यस्य ते (बृहत्) महत् (सहः) बलम् (रोदसी, दाधार) द्यावापृथिव्यौ दधाति (स्वः) दिवि च (वृषत्वना) वर्षत्वेन (अज्रान्, गिरीन्) क्षिप्रगामिनः मेघान् (अपः) जलम् दधाति ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Glorify Indra, who sustains the cosmic yajna in the two worlds, your life here and hereafter, whose cosmic potential sustains heaven, earth and the middle regions, who moves and controls the mighty gusts of winds and motions of mountainous clouds, and who gives us heavenly showers of rain for joy and vital energies.