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स प्र॑थ॒मे व्यो॑मनि दे॒वानां॒ सद॑ने वृ॒धः । सु॒पा॒रः सु॒श्रव॑स्तम॒: सम॑प्सु॒जित् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa prathame vyomani devānāṁ sadane vṛdhaḥ | supāraḥ suśravastamaḥ sam apsujit ||

पद पाठ

सः । प्र॒थ॒मे । विऽओ॑मनि । दे॒वाना॑म् । सद॑ने । वृ॒धः । सु॒ऽपा॒रः । सु॒श्रवः॑ऽतमः । सम् । अ॒प्सु॒ऽजित् ॥ ८.१३.२

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:13» मन्त्र:2 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:7» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:2


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शिव शंकर शर्मा

उसी का वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) वह सर्वद्रष्टा ईश्वर (देवानाम्) निखिल पदार्थों के (प्रथमे) उत्कृष्ट और (व्योमनि) व्यापक (सदने) भवन में स्थित होकर (वृधः) प्राणियों के सुखों को बढ़ानेवाला होता है। जो इन्द्र (सुपारः) अच्छे प्रकार दुःखों से पार उतारने वाला है (सुश्रवस्तमः) और अतिशय सुयशस्वी और सुधनाढ्य है और (समप्सुजित्) जलों के अन्तर्हित विघ्नों को भी जीतनेवाला है ॥२॥
भावार्थभाषाः - वह ईश्वर सबके अन्तर्यामी होकर सबको बढ़ाता और पोसता है और वही सर्व विघ्नों का विजेता है, अतः हे मनुष्यों ! वही पूज्य और ध्येय है ॥२॥
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आर्यमुनि

अब परमात्मा से सूर्य्यादि दिव्य पदार्थों की रचना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) वह परमात्मा (व्योमनि, सदने) व्योमरूपी स्थान में (देवानाम्) सूर्यादि दिव्य पदार्थों को (प्रथमे) प्रथम (वृधः) रचता है, वह परमात्मा (सुपारः) सब पदार्थों के पारंगत (सुश्रवस्तमः) अत्यन्त यशवाला (समप्सुजित्) और व्याप्ति में सर्वोपरि जेता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - वह सब पदार्थों को नियम में रखनेवाला परमात्मा सूर्य्यादि दिव्य पदार्थों की सबसे प्रथम रचना करता है, क्योंकि प्रकाश के विना न प्राणी जीवनधारण कर सकते और न संसार का कोई कार्य्य विधिवत् हो सक्ता है, इसी भाव को ऋग्० ८।८।४८।३। में इस प्रकार वर्णन किया है किः-सूर्य्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्। दिवञ्च पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्वः ॥धाता=सबके धारण-पोषण करनेवाले परमात्मा ने सूर्य्य तथा चन्द्रमा पूर्व की न्याईं बनाये, द्युलोक, पृथिवीलोक, अन्तरिक्षलोक और अन्य प्रकाशमान तथा प्रकाशरहित लोक-लोकान्तरों को भी बनाया=रचा, इसी कारण वह परमात्मा अत्यन्त यशवाला और सर्वोपरि जेता अर्थात् सर्वोत्कृष्ट गुणोंवाला है, जिसकी आज्ञापालन करना मनुष्यमात्र का परम कर्तव्य है ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

सुपारः सुश्रवस्तमः

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (सः) = वे प्रभु (प्रथमे) = इस अत्यन्त विस्तृत (व्योमनि) = आकाश में व (देवानां सदने) = देववृत्ति के पुरुषों के गृहों में स्थित हुए हुए (वृधः) = वर्धन को करनेवाले हैं। प्रभु आकाश की तरह व्यापक हैं, वस्तुतः प्रभु ही आकाश हैं। देववृत्ति के पुरुषों के घरों में प्रभु का निवास है। ये प्रभु ही वस्तुतः उन्हें देव बनाते हैं। [२] प्रभु (सुपार:) = अच्छी प्रकार हमें सब विघ्नों से पार करनेवाले हैं। (सुश्रवस्तमः) = उत्तम ज्ञानवाले हैं, उत्तम ज्ञान को देनेवाले हैं। और सारे (अप्सुजित्) = सम्यक् कर्मों में विजय को प्राप्त करानेवाले हैं। सब कर्म प्रभु के अनुग्रह से ही पूर्ण होते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु आकाश में सर्वत्र व्याप्त हैं। देव गृहों में प्रभु का निवास है। ये प्रभु ही सब विघ्नों से पार करनेवाले, उत्तम ज्ञान को देनेवाले व कर्मों में विजय को प्राप्त करानेवाले हैं।
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शिव शंकर शर्मा

तमेव विशिनष्टि।

पदार्थान्वयभाषाः - सः=इन्द्रः। देवानाम्=सर्वेषां पदार्थानाम्। “वेदेषु सर्वे पदार्था देवा उच्यन्ते”। प्रथमे=उत्कृष्टे। व्योमनि=व्यापके। सदने=भवने स्थितः सन्। वृधः=वर्धयिता भवति। य इन्द्रः। सुपारः=सुष्ठु पारयिता दुःखेभ्यः। पुनः। सुश्रवस्तमः=अतिशयेन शोभनं श्रवोऽन्नं यशो वा यस्य सः सुश्रवस्तमः। पुनः। समप्सुजित्=सम्यग् अप्सु जलेषु अन्तर्हितानपि विघ्नान् जयतीति समप्सुजित् ॥२॥
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आर्यमुनि

अथ परमात्मद्वारा सूर्यादि विरचनं कथ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) स परमात्मा (व्योमनि, सदने) व्योम्नि स्थाने (देवानाम्) दिव्यपदार्थानाम् (प्रथमे) आदौ (वृधः) वर्धकः (सुपारः) सर्वेषां पारंगतः (सुश्रवस्तमः) अत्यन्तयशाः (समप्सुजित्) सर्वोपरि व्यापकः ॥२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - At the first expansive manifestation of space, at the centre of all divine mutations of nature, he is the efficient cause of nature’s evolution, supreme pilot, most abundant and most glorious, omnipotent victor over conflicts and negativities in the way of evolution of nature and humanity in relation to will and action.