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यद॑स्य॒ धाम॑नि प्रि॒ये स॑मीची॒नासो॒ अस्व॑रन् । नाभा॑ य॒ज्ञस्य॑ दो॒हना॒ प्राध्व॒रे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad asya dhāmani priye samīcīnāso asvaran | nābhā yajñasya dohanā prādhvare ||

पद पाठ

यत् । अ॒स्य॒ । धाम॑नि । प्रि॒ये । स॒मी॒ची॒नासः॑ । अस्व॑रन् । नाभा॑ । य॒ज्ञस्य॑ । दो॒हना॑ । प्र । अ॒ध्व॒रे ॥ ८.१२.३२

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:12» मन्त्र:32 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:6» मन्त्र:7 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:32


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शिव शंकर शर्मा

पुनः उसकी स्तुति की जाती है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! (समीचीनासः) परस्पर संमिलित परमविद्वद्गण (यद्) जब (नाभा) सर्व कर्मों को बांधनेवाले (यज्ञस्य+दोहना) यजनीय=पूजनीय परमात्मा को तुमको दुहनेवाले (प्रिये) प्रिय (अध्वरे+धामनि) यज्ञरूप स्थान में (अस्य) इस तुझको (प्र+अस्वरन्) विधिवत् स्तवन करते हैं, तब हे भगवन् ! तू अभीष्ट देने को प्रसन्न हो ॥३२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यों ! उसको अपने व्यवहार से प्रसन्न करो ॥३२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जो (यज्ञस्य, अस्य) यज्ञरूप इस परमात्मा के (दोहना, प्राध्वरे) पदार्थों के दुहनेवाले महायज्ञ में (प्रिये, नाभा, धामनि) प्रिय नाभिरूप द्युलोक में (समीचीनासः) द्योतमान विविध लोक (अस्वरन्) शब्दायमान हो रहे हैं, वह इसकी महिमा है ॥३२॥
भावार्थभाषाः - “यज्ञो वै विष्णुः” इत्यादि वाक्यों से यज्ञ नाम व्यापक परमात्मा का है और “नाभ्या आसीदन्तरिक्षम्” इस मन्त्र के अनुसार अन्तरिक्ष उस परमात्मा का नाभिस्थान माना गया है। उसी नाभि=द्युलोक में अनेक लोक उस परमात्मा की शक्ति से भ्रमण करते हुए शब्दायमान हो रहे हैं और उसी के तेज से उनमें अनेक स्वयंप्रकाश हैं, यह उस परमात्मा की महिमा है ॥३२॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

'प्रिय धाम' की प्राप्ति

पदार्थान्वयभाषाः - [१] (यद्) = जब (अस्य) = इस प्रभु के (प्रिये धामनि) = प्रिय धाम के निमित्त (समीचीनासः) = सम्यक् गति करते हुए ये उपासक (अस्वरन्) = उस प्रभु के गुणों का उच्चारण करते हैं। वस्तुत: प्रभु प्राप्ति का मार्ग तो यही है कि हम [क] प्रभु का स्तवन करें, [ख] और सदा उत्तम मार्ग पर चलें। [२] उत्तम मार्ग में चलने का भाव यह है कि (नाभा) = हम सदा नाभि में निवास करें। 'अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः 'यज्ञ ही भुवन की नाभि है । (यज्ञस्य दोहना) = सदा यज्ञों का दोहन करनेवाले हों। (प्राध्वरे) = प्रकृष्ट हिंसा रहित कर्मों में हमारी गति हो ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु के प्रिय धाम की प्राप्ति का उपाय यह है कि हम प्रभु-स्तवन करते हुए सदा यज्ञादि उत्तम कर्मों में गतिवाले हों।
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शिव शंकर शर्मा

पुनः संस्तूयते।

पदार्थान्वयभाषाः - समीचीनासः=समीचीनाः संगताः परमविद्वांसो जनाः। यद्=यदा प्रिये। अध्वरे=यज्ञरूपे। धामनि=स्थाने। अस्य=इममिन्द्रम्। प्र=प्रकर्षेण। अस्वरन्=स्वरन्ति स्तुवन्ति। स्वृ शब्दोपतापयोः। तदा हे भगवन् ! त्वमभीष्टं दातुं प्रसीद। कीदृशे धामनि। नाभा=नाभौ। णह बन्धने। सर्वेषां कर्मणां बन्धके। पुनः। यज्ञस्य दोहना=दोहने ॥३२॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) यद्धि (यज्ञस्य, अस्य) यज्ञरूपस्यास्य परमात्मनः (दोहना, प्राध्वरे) पदार्थदोग्धरि महायज्ञे (नाभा, प्रिये, धामनि) नाभिस्थाने प्रिये द्युलोके (समीचीनासः) द्योतमाना लोकाः (अस्वरन्) शब्दायन्ते, सोऽस्य महिमा ॥३२॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - When in the favourite hall of this lord Indra, the congregations on the yajna vedi, exuberant with soma and fragrance, raise the voice of adoration and prayer in unison aspiring for the milky gifts of yajna—