पदार्थान्वयभाषाः - [१] इस जीवन में जो व्यक्ति (दैवोदासः) = उस देव का दास [सेवक] बनता है। वह (अग्निः) = आगे बढ़नेवाला होता है। और (न) [ = सम्प्रति] = अब (मज्मना) [ मस्ज्] = प्रभु की उपासना में गोता लगाने के द्वारा शोधन से (देवान्) = अच्छा-दिव्य गुणों की ओर (प्र) [ चलति ] = प्रकर्षेण बढ़ता है। [२] यह दिव्य गुणों की ओर बढ़नेवाला व्यक्ति (मातरं पृथिवीं अनु) = इस भूमि माता पर उसकी गोद में अपने जीवन को सफलता से बिताने के बाद विवावृते फिर अपने ब्रह्मलोक रूप गृह को लौट जाता है। अब यह (नाकस्य) = मोक्षलोक के दुःखशून्य [न अकं यत्र] सुखमय लोक के (सानवि) = शिखर प्रदेश में आनन्द की चरम सीमा में (तस्थौ) = स्थित होता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम प्रभु के उपासक बनें, आगे बढ़ें, प्रभु में अपने को शुद्ध कर डालें। दिव्य गुणों को बढ़ाते हुए, इस जीवनयात्रा को पूर्ण करके मोक्षसुख में स्थित हों।