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आ नो॑ य॒ज्ञं दि॑वि॒स्पृशं॒ वायो॑ या॒हि सु॒मन्म॑भिः । अ॒न्तः प॒वित्र॑ उ॒परि॑ श्रीणा॒नो॒३॒॑ऽयं शु॒क्रो अ॑यामि ते ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā no yajñaṁ divispṛśaṁ vāyo yāhi sumanmabhiḥ | antaḥ pavitra upari śrīṇāno yaṁ śukro ayāmi te ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ । नः॒ । य॒ज्ञम् । दि॒वि॒ऽस्पृश॑म् । वायो॒ इति॑ । या॒हि । सु॒मन्म॑ऽभिः । अ॒न्तरिति॑ । प॒वित्रे॑ । उ॒परि॑ । श्री॒णा॒नः । अ॒यम् । शु॒क्रः । अ॒या॒मि॒ । ते॒ ॥ ८.१०१.९

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:101» मन्त्र:9 | अष्टक:6» अध्याय:7» वर्ग:7» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:10» मन्त्र:9


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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

दिविस्पृश यज्ञ

पदार्थान्वयभाषाः - [१] प्रभु जीव से कहते हैं कि हे (वायो) = [वा गतौ] जीवन को सदा गतिमय रखनेवाले पुरुष ! (नः) = हमारे (दिविस्पृशम्) = ज्ञान में स्पर्श करानेवाले (यज्ञम्) = ' माता, पिता, आचार्य' आदि देवों के पूजनरूप यज्ञ को (आयाहि) = तू प्राप्त हो [ यज् देवपूजायाम्] । [२] (अन्तः पवित्रे) = पवित्र हृदय में (सुमन्मभिः) = उत्तम मननपूर्वक की गई स्तुतियों से (अयम्) = यह (शुक्रः) = शरीर में उत्पन्न सोम उपरि (श्रीणानः) = ऊर्ध्वगतिवाला होता हुआ परिपक्व हो जाता है। (ते अयामि) = इस सोम को मैं तेरे लिये (अयामि) = प्राप्त कराता हूँ। यह सोम ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है। इसका शरीर में यही सर्वोत्तम विनियोग है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ-'माता, पिता, आचार्य' आदि देवों के आदर व अनुगमन से मैं ज्ञान को बढ़ाऊँ । स्तुतियों के द्वारा हृदय को पवित्र करते हुए हम सोम की शरीर में ऊर्ध्व गति करें।
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - O Vayu, vibrant sage of knowledge and science of yajna, come to our project of divine possibilities with your noble ideas and plans, and I, joining this programme with you, offer this bright performance of ours, pure within in purpose and bright and clear in form and structure.