पदार्थान्वयभाषाः - [१] (यः) = जो कामासक्ति (संपृच्छे) = प्रभु विषयक सम्प्रश्न के लिये (न रमते) = आनन्दित नहीं होती, [कामासक्त पुरुष को प्रभु विषयक प्रश्न ही रुचिकर नहीं होता] । (पुनः) = फिर जो क्रोध (हवीतवे) = प्रभु को पुकारने के लिये (न) [ रमते] = प्रीतिवाला नहीं होता, [क्रोध में प्रभु का नाम न लेकर वाणी अपशब्दों को ही बोलती है ] । जो लोभ (संवादाय) = प्रभु विषयक वार्ता के लिये न [रमते] आनन्द का अनुभव नहीं करता। (नः) = हमें हे मित्र और वरुण, स्नेह व निर्दोषता के भाव ! आज (तस्मात् समृते:) = इस वासना के आक्रमण से (उष्यतम्) = आप बचाओ। हम काम, क्रोध, अद्य लोभ में न फँसकर प्रभु की चर्चा में स्वाद लें। प्रभु के विषय में ही सम्प्रश्न करें, प्रभु को ही पुकारें, परस्पर आत्मविषयक संवाद ही करनेवाले हों। (२) हे (मित्रावरुणौ) = स्नेह व निर्देषता के भावो ! आप (बाहुभ्याम्) = अभ्युदय व निःश्रेयस विषयक प्रयत्नों के द्वारा, निरन्तर कर्मों में लगे रहने के द्वारा (नः) = हमें (उरुष्यतम्) = काम-क्रोध-लोभ के आक्रमण से बचायें।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम 'मित्र' का स्तवन करते हुए परस्पर मेलवाले हों। 'अर्यमा' का स्तवन करते हुए शत्रुओं के आक्रमण से अपने को बचायें। 'वरुण' की आराधना ही हमारा छादन हो। इस प्रकार हमारा जीवन दीप्त बने।