पदार्थान्वयभाषाः - [१] प्रभु कहते हैं कि (ऋतस्य वेना:) = ऋत की, यज्ञ की कामनावाले (यत्) = जब (मा अरुहन्) = मुझे प्राप्त होते हैं, मेरा आरोहण करते हैं। उस मेरा, जो (एकम्) = अद्वितीय हूँ और (हर्यतस्य) = [हर्य गतिकान्त्योः] गतिमय चमकनेवाली इस प्रकृति के (पृष्ठे आसीनम्) = पृष्ठ पर आसीन हूँ। मेरे से अधिष्ठित प्रकृति ही तो चराचर को जन्म देती है। [२] उस समय (मनः चित् मे) = मन निश्चय से मेरा हो जाता है। यह प्रभु में लीन मन (हृदे आ प्रत्यवोचत्) = हृदय के लिये प्रतिवचन को कहता है- हृदयस्थ प्रभु के साथ बातचीत ही करता है। (सखायः) = ये प्रभु के मित्र लोग (अन्तः) = हृदय के अन्दर उस (शिशुम्) = अविद्या आदि दोषों के तनू कर्ता प्रभु को (अचिक्रदन्) = पुकारते हैं। हृदयस्थ प्रभु की आराधना करते हैं। अपने दोषों के क्षय के लिये प्रभु को पुकारते हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- हम ऋत की कामनावाले होकर प्रभु को प्राप्त हों। प्रभु से अधिष्ठित प्रकृति को ही चराचर को जन्म देती हुई जानें। प्रभु में मन को लगाकर हृदयस्थ प्रभु से बात करें, दोषों का क्षय करनेवाले उस प्रभु को ही पुकारें ।